पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०३

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रामचरित-मानस । वाच्यार्थ के समान व्यङ्गीर्थ है कि ब्रह्मा ने कैकेयी जैसी मुझे सुमाता देकर मेरी बात बना दी। उसने राजतिलक का मेरे लिये वर मांग रक्खा है, तब उसके लिये आप सब व्यर्थ ही प्यों मेरी सहायता करते हैं । यह 'तुल्यप्रधान गुणीभूत यह है। दो०-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस, तेहि पुनि बीछी मार । ताहि पिआइय बारुनी, कहहु कवन उपचार ॥ १८० ॥ ग्रहों से जकड़ा फिर पातव्याधि के अधीन, तिस पर पीछे विच्छू ने डकमारा हो । उसको मदिरा पिलाइये तो भला कहिये यह कौन सी चिकित्सा है ? १ol . दुःख के लिये ग्रहों का विरुद्ध होना पर्याप्त कारण है, उस पर वातव्याधि विच्छू का दङ्क मारना अन्य प्रवल हेतुओं का विद्यमान रहना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है । कैकेयी के उदर का निवास, ग्रहों की जकड़न है । राजा की मृत्यु बातव्याधि है, रामचन्द्रजी की बनयोत्रा बिच्छू का उङ्क मारना है । राजतिलक देने की बात मदिरा पिलाना है ! राजापुर की प्रति में 'तेहि पिइय वारुनी' पाठ है, परन्तु उच्चारण में एक मात्रा की कमी से खटक श्राती है। चौ०-कैकइ सुअन जोग जग जोई। चतुर बिरचि दीन्ह माहि सोई॥ दसरथ तनय रास लघु भाई । दीन्हि माहि विधि बादि बड़ाई ॥१॥ कैकेयी के योग्य जो पुत्र संसार में होना चाहिये, चतुर विधाता ने मुझे पैसा ही दिया। पर दशरथजी का पुत्र और रामचन्द्रजी का छोटा भाई, यह बड़ाई ब्रह्मा ने मुझे ब्यर्थ ही दिया ॥२॥ तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका । राय-रजायसु सब कहँ नीका ॥. उतर देउँ केहि बिधि केहि केही । कहहु सुखेन जथारुचि जेही ॥२॥ आप अब तिलक खिंचवाने को कहते हैं, राजाज्ञा सय के लिये अच्छी है। मैं किस प्रकार किसको किस को उत्तर दूं, जिसकी जैसी रुचि हो प्रसन्नता से कहिये ॥२॥ ' मोहि कुमातु समेत बिहाई । कहहु कहिहि के कीन्ह मलाई । भो बिनु को सचराचर माहीं । जेहि सियराम प्रानप्रिय नाही ॥३॥ कुमाता के सहित मुझे छोड़ कर कहिये, और कौन कहेगा कि भरत ने अच्छा किया ? मेरे सिवाय जड़ चेतन जीवों में कौन ऐसा है जिसको सीताजी और रामचन्द्रजी प्राण के समान प्यारे नहीं हैं ॥३॥ परम-हानि सब कह बड़ लाहू । अदिन मार नहिं दूषन काहू ॥ संसय-सील प्रेम बस अहहू । सबइ उचित सब जो कछु कहहू ॥४॥ जिससे मेरी अत्यन्त हानि है वही सब को बड़ा लाभ दिखाई देता है, किसी का दोप नहीं; मेरे दुर्दिन का फेर है। आप न संशय, शील और स्नेह के अधीन हैं जो कुछ कहिये सभी उचित है un