पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । संशय-बिना राजा के अराजकता आदि उपद्रवों का डर । शील-लघु को अनादर न हो । स्नेह-मुझ पर अत्यन्त प्रेम और वात्सल्यभाव । यहाँ पर्यन्त उत्तर प्रजा और मन्त्रियों की ओर लक्ष्य कर दिया । अव माताजी को विनय सुनाते हैं। दो०-राममातु सुठि सरल चित, मो पर प्रेम बिसेखि। कहइ सुभाय सनेह बस, मारि दीनता देखि ॥ ११ ॥ रामचन्द्रजी की माता अत्यन्त सरल चित है, उसका मुझ पर विशेष प्रम है। स्वाभा- विक स्नेह के यश होकर मेगे दोनता देख कहती है ॥११॥ चौ०-गुरु बिबेक सागर जग जाना। जिन्हहि बिस्त्र कर बदर समाना ॥ मो कह तिलक साज सज सेऊ। भये विधि बिमुख बिमुख सब कोऊ ॥१॥ गुरुजी ज्ञान के समुद्र है। इसको संसार जानता है कि जिनके हाथ में ब्रह्माण्ड वेर के फल के समान है। वे भी हमारे लिये तिलक का साज सजरहे हैं। विधाता के प्रतिकूल होने से सब कोई विपरीत हो जाते हैं ॥१॥ भरतजी कहते तो गुरुजी से हैं, परन्तु विमुख हेनेि की बात दूसरों के प्रति कह कर गुरुजी को सूचित करना 'गूढोक्ति अलंकार' है । गुरुजी का ऐसा कहना आश्चर्यमय है ईश्वर के विपरीत, शिष्य को संसार की और लगने को कहैं 'तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्गा है। परिहरि राम सीय जग माहीं । कोउ न कहिहि मोर मत नाही। सो मैं सुनब सहब सुख मानी । अन्तहु कोच तहाँ जहँ पानी ॥२॥ रामचन्द्रजी और सीताजी को छोड़ कर संसार में कोई न कहेगा कि इसमें मेरी सलाह नहीं थी । वह मैं सुख मान कर सुनूगा और सहुँगा, जहाँ पानी रहता है अन्त को वहाँ कीचड़ होता ही है ॥२॥ हर न मोहि जग कहिहि कि पोचू । परलोकहु कर नाहि न सोचू ॥ एका उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय राम दुखारी ॥३॥ मुझे इसका डर नहीं कि संसार चुरा कहेगा, परलोक का भी. लोच नहीं है। एक ही असहनीय दावानल हृदय में बसा है कि मेरे कारण रामचन्द्रजी और सीताजी दुखी हुए हैं ॥३॥ जीवन लाहु लखन भल पावा । सब तजि राम-चरन मन लावा ।। भार जनम रघुबर बन लागी । कूठ काह पछताउँ अभागी ॥४॥ जन्म लेने का लक्ष्मण ने अच्छा लाम पाया कि सब त्याग कर रामचन्द्रजी के चरण में मन लगाया । मेरा जन्म रघुनाथजी को वनवास के लिये हुआ, फिर मैं अभागा झूठमूठ क्या पछताऊँ॥४॥