पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०७

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& रामचरित-मानस । सुन कर चातक और मार आनन्दित हो । सबेरे चलने का अच्छी तरह निर्णय देख कर भरतजी सभी को प्राण-प्रिय हुए ॥१॥ मुनिहिँ बन्दि भरतहि सिर नाई । चले सकल घर बिदा कराई । धन्य भरत जीवन जग माहीं। सील सनेह सराहत जाहीं ॥ २ ॥ मुनि को प्रणाम कर भरतजी को सिर नवा सय विदा होकर घर चले। रास्ते में भरतजी के शोल, स्नेह को सराहते जाते हैं कि संसार में भरतजी का जीवन धन्य है ॥२॥ कहहिँ परसपर मा बड़ काजू । सकल चलइ कर साजहिँ साजू ॥ जेहि राखहिँ, रहु घर रखवारी । सो जानइ जनु गरदनि मारी ॥३॥ आपस में कहते हैं कि बड़ा कार्य हुना, सब चलने का सामान सजते हैं। जिसको घर की रखवाली के लिए रखते हैं, उसको ऐसा जान पड़ता है माने गर्दन मार दी गई हो ॥ ३॥ कोउ कह रहन कहिय जनि काहू । को न चहइ जग जीवन-लोहू ॥४॥ कोई कहता है कि किसी को रहने के लिए मत कहो, जगत में जीवन का लाभ कौन नहीं चाहता ? (सभी चाहते हैं)॥४॥ क्षण-जरउ सो सम्पति सदन सुख, सुहृद मातु पितु भाइ । सनमुख होत जो राम पद, करइ न सहज सहाइ ॥ १५ ॥ वह धन, घर का आनन्द, मित्र माता, पिता और भाई जल जाय जो रामचन्द्रजी के चरणों के सन्मुख होते हुए स्वाभाविक सहायता न करें ॥१५॥ रामचन्द्रजी के चरणों के सामने होने में सहज सहायक न हो तो इस दोष से अदिर. पीय को भी त्याग योग्य समझना तिरस्कार अलंकार है। चौ०-घर घर साहिँ बाहन नाना । हरष हृदय परभात पयाना। भरत जाइ घर कीन्ह विचारू । नगर बाजि गज अवन भंडारू॥१॥ घर घर लोग नाना प्रकार की सवारियां सजते हैं, सवेरे प्रस्थान होगा इसका मन में हर्ष है। भरतजी ने महल में जाकर विचार किया कि नगर, घोड़ा, हाथी,मन्दिर और कोश ॥१॥ सम्पति सब रघुपति के आही। जौं बिनु जतन चलउँ-तजि ताही ॥ तौ परिनाम न मारि भलाई । पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥२॥ सब सम्पत्ति रघुनाथजी की है, यदि उसकी रक्षा का प्रबन्ध किये बिना छोड़ कर चलता हूँ ते। इसका परिणाम (नतीजा ) मेरे लिये अच्छा न होगा, एक तो यो ही पाप-शिरोमणि । तिस पर स्वामि-द्रोही कहलाऊँगा ॥२॥ 'साई-दोहाई' शब्द स्वामि-द्रोहता का ख्यक है न कि स्वामी की सौगन्द सोने का । विनयपत्रिका में ऐसा ही है-~-"हो तो साईदाही पै सेवक हित साँई" । साईदोह मोहि कीन्ह कुमावा इत्यादि।