पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५१७ करइ स्वामि हित सेवक साई । दूषन कोटि देइ किन कोई ॥ अस बिचारि सूचि सेवक बोले । जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥३॥ सेवक वही है जो स्वामी का हित करे, चाहै कोई उसको करोड़ों दोष क्यों न दे। ऐसा विचार कर पवित्र (ईमानदार) सेवकों को बुलवाये जो स्वम में भी अपने (सेवा) धर्म से डगे नहीं हैं ॥३॥ कहि सब मरम धरम भल आखा । जो जेहि लायकं सो तहँ राखा ॥ करि सब जतन. राखि रखवारे । राम-मातु पहिँ मरत सिधारे ॥४॥ सब भेद कह अच्छी तरह धर्म' वर्णन किये, जो जिस लायक थे उसे वहीं रखा। सब रक्षकों को यत्नःपूर्वक रख कर भरतजी रामचन्द्रजी की माता के समीप गये ॥४॥ दो०--आरत जननी जानि सब, भरत सनेह सुजोन। कहेउ बनावन पालकी, सजन सुखासन जान ॥१६॥ सब माताओं के दुःखी समझ कर स्नेह में चतुर भरतजी ने पालकी बनाने को और तामजान आदि सवारियाँ सजने को कहा ॥ १६ ॥ माताएँ राघनाथजी के दर्शन के लिये कोतर हुई हैं, भरतजी स्नेह में चतुर हैं उनकी कातरता को समझ गये और साथ चलने के लिये निवेदन किया। चौ०-चक्क चक्कि जिमि पुर-नर-नारी। चहत प्रात उर आरत भारी ॥ जागत सब निसि अयउ बिहाना ।भरत बोलाये सचिव सुजाना॥१॥ चकवी चकवा जैसे नगर के स्त्री-पुरुष सबेरा होने की चाह से मन में बहुत दुःखी हैं । सारी रात जागते ही प्रातःकाल हुआ, भरतजी ने चतुर मन्त्रियों को बुलवाया ॥२॥ कहेउ लेहु । सब तिलक-समाज । बनहिं देव. मुनि रामहिं राजू ॥ बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे । तुरत तुरग रथ नोग सँवारे ॥२॥ .उनसे कहा कि तिलक का सब सामान साथ ले चलो, वन ही में मुनिराज रामचन्द्रजी को राज्य देंगे। जल्दी चलो, यह सुन कर मन्त्री ने प्रणाम किया और जाकर तुरन्त घोड़े रथ हाथी सजवाये ॥२॥ अरुन्धती अरु अगिनि' समाज । रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराज । बिप्रयन्द चढ़ि बाहन नाना । चले सकल तप तेज निधाना ॥३॥ अरुन्धती और अग्निहोत्र के समान सहित रथ पर चढ़ कर पहले मुनिराज बशिष्ठजी चले । नाना प्रकार की सवारियों पर चढ़कर तप और तेज के स्थान समस्त ब्राह्मण समूह चले ॥३॥ अरुन्धती-वशिष्ठजी की धर्मपत्नी का नाम है । सभा की प्रति में तुकान्त 'समाजू मुनिराजू है।