पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०९

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जाते हैं ॥१॥ रामचरित न नगर लोग सब सजि सजि जाना । चित्रकूट कह कीन्ह पयानो ॥ सिविका सुभग न जाहिँ बखानी । चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानीwen नगर के सब लोग सवारियों को सजं सज कर चित्रकूट को पयान किये। सुन्दर पालकी जो बखानी नहीं जाती हैं, उन पर चढ़ चढ़ कर सर्व रानियाँ चली ॥५॥ दो०-सौपि नगर सुचि सेवकान, सादर सबहि चलाइ । सुमिरि राम सिय चरन तब, चले भरत दोउ भाइ ॥१८॥ विश्वासी सेवकों को नगर सौप कर श्रादर के साथ सब को चला कर तब भरत-शत्रुहन दोनों भाई रामचन्द्रजी और सीताजी के चरणों को स्मरण कर चले ॥१७॥ चौक-राम दरस घस सब नर नारी । जनु करि करिनि चले तकि बारी । बन सिय-राम समुझि मन माहीं। सानुज मरत पयादेहि जोही॥१॥ रामचन्द्रजी के दर्शन की प्यास के वश सव स्त्री-पुरुष चले जारहे हैं, वे ऐसे माइम होते हैं मानो हाथी और हथिनी जलाशय देख कर उसकी पोर प्यास बुझाने चले होमन सीता जी और रामचन्द्रजी को वन में समझ कर भरतजी छोटे भाई शन इन के सहित पैदल देखि सनेह लोग . अनुरागे । उतरि चले. हय गय रथ, तागे.॥ जाइ समीप राखि निज डाली । राममातु मृदुबानी बेली ॥२॥ भरतजी के स्नेह को देख कर लोग अनुरुक्क हुए और घोड़े, हाथी रथों को त्याग उतर कर पैदल चले । रामचन्द्रजी की माता अपनी पालकी भरतजी के समीप ले जाकर कोमल वाणी से बोली ॥२॥ तात चढ़हु रथ बलि महतारी । होइहि प्रिय परिवार दुखोही । तुम्हरे चलत चलिहि सब लोगू । सकल सेोक कृस नहिँ मग जो॥३॥ हे पुत्र ! माता बलि जाती है। रथ पर चढ़िये नहीं तो प्रिय कुटुम्वीजन दुखी होंगे। तुम्हारे चलते सब लोग पैदल चलेंगे, सम्पूर्ण शोक से खिन्न हैं, राह के योग्य नहीं हैं ॥३॥ सिर धरि बचन चरन सिरनाई। रथ चढ़ि चलत भये दोउ भाई। तमसा प्रथम दिवस करि बासू । दूसर गोमति तीर निवासू ॥४॥ माता की श्राज्ञा शिरोधार्य कर चरणों में मस्तक नवा.दोनों भाई रथ पर चढ़ कर चले। पहले दिन तमसा के किनारे टिके और दूसरे दिन गोमती के तट पर निवास हुआ ॥४॥ दो०-पयअहार फलअसन एक, निसिभोजन एक लोग। करत राम हित नेम-व्रत, परिहरि भूषन भोग ॥१८॥ कोई दूध पीकर, कोई फल खाकर और कुछ लोग रात्रि में भोजन करके रामचन्द्रजी के. दर्शन के लिये गहना और भोग-विलास त्याग कर नेम व्रत करते हैं ॥१८॥