पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१०

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौ०-सई तीर बसि चले बिहाने। सङ्गधेरपुर सब नियराने । ॥ समाचार सब सुने निषादा । हृदय बिचार करइ सबिषादा ॥१॥ सई के किनारे रह कर सवेरे चले और सब टंगवेरपुर के समीप पहुँचे। निषाद ने सब समाचार सुना, यह दुःख से मन में विचार करने लगा ॥१॥ कारन कवन भरत बन जाहौँ । है कछु कपट-भाउ मन माहीं । जौं पै जिय न होति कुठिलाई । तौ कत लीन्ह सङ्ग कटकाई ॥२॥ भरत बन जाते हैं, इसका क्या कारण है ? कुछ कपट-भाव उनके मन में है। यदि जी में कुटिलता न होती तो लेना साथ में काहे को लेते ॥२॥ जानहिँ सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राज सुखारी । भरत न राजनीति उर आनी । तब कलङ्क अब जीवन हानी ॥३॥ समझते हैं कि छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रामचन्द्रजी को मार कर सुख से बेखटके राज्य कर (भरत ने मन में राजनीति नहीं लाई, तब कलङ्क हुअा था अब जीवन नाश होगा ॥३॥ सकल-सुरासुर जुरहिँ जुझारा । रामहि समर न जीतनिहारा ॥ का आचरज भरत अस करहीं। नहि बिष बेलि अमिय फल फरहीं ॥४॥ सम्पूर्ण लड़ाके देवता औरदैत्य जुट कर समर में रामचन्द्रजी को जीतने योग्य नहीं है। भरत ऐसा करते हैं तो या आश्चर्य है । विष की लता अभृत का फल नहीं फलती ran दहा-अस बिचारि गुह ज्ञाति सन, कहेउ सजग सब होहु । हथवासह बोरह तरनि, कीजिय घाटारोहु ॥१८॥ ऐसा विचार कर गुह ने जातिवालों से कहा कि सब लोग होशियार हो जाओ। हथवासों को डुया दो और नावों को घाट के ऊपर चढ़ा दो ॥१६॥ डॉढ़ को पानी में गाड़ना और नाय को अवघर में घाट के ऊपर चढ़ाना जिससे सहसा पार होने का साधन नष्ट हो जाय | नाव डुबाने से निकालना कठिन हो जाता है, इससे नौकाओं को हुवाने के लिये नहीं कहता है। चौ०-होहु सँजोइल रोकहु घाटा । ठारहु संकल मरइ के. ठाटा। सनमुख लोह भरत सन लेऊ । जियत न, सुरसरि उतर न देॐ ॥१॥ सावधान होकर घाट को रोकों और सब कोई मरने की पक्की तैयारी करो। मैं भरत सामने लोहा लेऊँगा और जीते जी गङ्गाजी न उतरने दूंगा ॥१॥ समर-मरन पुनि सुरसरि-तीरा । राम-काज छनभङ्ग-सरीरा॥ भरत भाइ-नप मैं जन नीचू । बड़े भाग असि पाइय मीचू ॥२॥ युद्ध में मरण फिर गङ्गाजी के किनारे, रामचन्द्रजी का कार्य, क्षणभङ्गुर शरीर । भरत राजा रामचन्द्रजी के भाई और मैं नीच जन हूँ, ऐसी मृत्यु बड़े भल्य से मिलती है ॥२॥