पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५५१ अँगरी पहिरि कौड़ि सिर' धरहीं । फरसा बाँस सेल सम करहीं। एक कुसल अति ओड़न खौड़े । कूदहिँ गगन मनहुँ छिति छाँड़े ॥३॥ बलतर पहन कर सिर पर पथरी धरते हैं, भलुहा, बाँस और बरछी को सुधारते हैं । कोई ढाल तलघार की कला में बड़े प्रवीण कूदते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों पृथ्वी को छोड़ कर आकाश में उड़ते हो ॥३॥ निज निज साज समोज बनाई । गुह राउतहि जोहारे जाई ॥ देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नोम सकल सनमाने ॥४॥ अपने अपने साज सज कर और टोली बना कर गुह सरदार के पास जाकर प्रणाम किये। सब योद्धाओं को देख कर उन्हें युद्ध के योग्य समझ कर गुह ने सब का नाम ले ले कर सम्मान किया।४॥ दो०-भाइहु लावहु धोख जनि, आजु काज बड़ माहि। सुनि सरोष बोले सुमट , बीर अधीर न होहि ॥१९॥ गुह ने कहा-भाइयो ! धोखा न लगाना, आज मेरा बड़ा काम है। यह सुन कर योद्धा-निषाद वर्ष के साथ बोले-हे वीर ! अधीर न हो ॥१६॥ चौध-राम-प्रताप नाथ बल तारे । करहिँ कटक बिनु भट बिनु घोरे॥ जीवत पा न पाछे घरहीं। रुड-मुंड-मय-मेदिनि करहीं ॥१॥ हे नाथ ! रामचन्द्रजी के प्रताप और आप के बल से हम लोग सेना को बिना योद्धा और बिना घोड़े की कर देगे। जीते जी पीछे पाँव न धरेंगे, धरती के धड़ और सिरों से भर देंगे अर्थात् मेदिनी नाम सार्थक करके दिखा देगे ॥१॥ निषादों के मन में युद्ध के लिये उत्साह स्थायीभाव है। भरतजी आलम्बन विभाव हैं। रामचन्द्रजी की प्रसन्नता का विचार, विजय की आशा, बल का दर्प, रण में गङ्गाजी के तटपर राजा के भाई द्वारा मरण आदि उद्दीपन विभाव है। शस्त्र धारण, वीरों की प्रशंसा, उछलना, कूदना आदि अनुभाव है। श्रावेग, उग्रता,'धृति श्रादि सञ्चारी भावों से पुष्ट होकर 'वीररसा हुआ है। देखि निषाद-नाथ भल टोलू । कहेउ बजाउ जुझाऊ, ढोलू ॥ एतना कहत छौंक भइ सायँ । कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहायें ॥२॥ निषादराज ने अच्छी गोल देख कर कहा कि भाऊ ढोल बजाओ। इतना कहते ही बाई ओर लीक हुई, सगुनियों ने कहा-सुन्दर दिशा में छींक हुई ( जीत होगी) ॥२॥ बूढ़ एक कह सगुन बिचारी । भरतहि मिलिय न होइहि रारी ॥ रामहि भरत मनावन जाहीं । सगुन कहइ अस विग्रह नाही ॥३॥ एक मुड्ढे ने सगुन विचार कर कहा कि भरतजी से मिला लड़ाई न होगी। रामचन्द्रजी को भरत मनाने जाते हैं, सगुन ऐसा ही कहता है इसमें विरोध नहीं है ॥३॥