पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५५३ पहिले निषाद ने केवल अपना नाम कह कर गुरुजी को प्रणाम किया था।जब भरतजी उनकी ओर बढ़े तब उसे शङ्का हुई कि मैं अस्पृश्य जाति का नीच हूँ, कहीं भरतजी को धोखा न हो जाय जिससे पीछे मन में पश्चाताप हो । इस शङ्का के निवारणार्थ अपना नाम ग्राम और जाति बतला कर प्रणाम किया। दो०-करत दंडवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुँ लखन सन मॅट भइ, प्रेम न हृदय समाइ॥१३॥ उसको दंडवत करते देख कर भरतजी ने छाती से लगा लिया। प्रेम हृदय में समाता नहीं है. ऐसा मालूम होता है मानों लक्ष्मणजी से भेंट हुई हो ॥१३॥ चौ०-भैंटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिँ प्रेम के रीती। धन्य धन्य धुनि मङ्गल-मूला । सुर सराहि तेहि बरिसहि फूला ॥१॥ भरतजी उससे अत्यन्त प्रीति से मिलते हैं, लोग प्रेम की रीति की बड़ाई करते हैं। देवता मङ्गल-मूल शब्द धन्य धन्य कह कर उसकी सराहना करके फूल बरसाते हैं ॥१॥ लोक वेद सब भाँतिहि नीच। । जासु छाँह छुइ लेइय सौंचा ।। तेहि भरि अङ्क राम लघु चाता । मिलत पुलक परिपूरित गाता ॥२॥ जो लोक और वेद में सब तरह से नीच गिना जाता है, जिसकी परछाही छू जाने पर पानी से शरीर सींच लेना पड़ता है। उसका रामचन्द्रजी के लघु-पन्धु अश्वार भर पुलक से परिपूर्ण शरीर हो कर मिलते हैं ॥२॥ राम राम कहि जे जमुहाही । तिन्हहिँ न पाप-पुज समुहाही । एहि तो राम लाइ उर लीन्हा । कुल समेत जग पावन कीन्हा ॥३॥ जो राम राम कह कर भाई लेते हैं, पाप की राशि उनका सामना नहीं करती। इसको तो रामचन्द्रजी ने हदय से लगा लिया जिससे इसने संसार में अपने कुल सहित (केवटमात्र) को पवित्र कर दिया ॥३॥ करमनास जल सुरसरि परई । तेहि को कहहु सीस नहिं धरई ॥ उलटा नाम जपत जग जानो। बालमीकि भये ब्रह्म समाना । कर्मनाशा का पानी गङ्गाजी में पड़ता है, भला कहा-उसको कौन न सिर पर धरेगा ? संसार जानता है कि उलटा नाम जपने से वाल्मीकिजो ब्रह्म के समान हो गये ॥४॥ दो०-स्वपच सबर खस जमन जड़, पाँवर कोल किरात । राम कहत पावन परम, होत भुवन विख्यात ॥ १४ ॥ चाण्डाल, शबर, खस म्लेच्छ, कोल, भील भादि मूर्ख नीच, राम कहते ही अत्यन्त पवित्र हुए, यह संसार में प्रसिद्ध है ॥१४॥ 1 ७०