पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१५

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. ५४ रामचरित-मानस । चौ नहि अचरज जुग जुग चलि आई। केहि नदीन्हि रघुबीर बड़ाई। राम-नाममहिमासुर कहही । सुनि सुनिअवध-लोग सुखलहहीं ॥१॥ यह आश्चर्य नहीं, युग युगान्तर (यह रीति) से चली आती है कि,रघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी। इस तरह देवता लोग राम नाम की महिमा कहते हैं, उसको सुन सुन कर अयोध्या निवासी सुख पाते हैं ॥१॥ रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूछी कुसल सुमङ्गल मा । देखि भरत कर सील-सनेहू । भा निषाद तेहि समय विदेहू ॥ २ ॥ भरतजी प्रेम के साथ राम-लखा मिल कर उसका कुशल-क्षेम और माल पूछा। भरतजी का शील-स्नेह देख कर निषाद उस समय विदेही हो गया अर्थात् उसको अपने शरीर की सुध भूल गई ॥२॥ सकुच सनेह माद मन बाढ़ा । भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा ॥ धरि धीरज पद बन्दि बहारी । बिनय सप्रेम करत कर जारी ॥३॥ उसके मन में लज्जा, स्नेह और आनन्द बढ़ा, टकटकी लगाये खड़ा होकर भरतजी को निहारता है। फिर धीरज धर कर चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर प्रेम से विनती करने लगा ॥३॥ निषाद के मन में लाज, प्रीति और हर्ष तीनों भाव साथ ही उदय हुए 'प्रथम समुच्चय अलंकार' हैं। लज्जा इस बात की कि रामचन्द्रजी के परम स्नेही भरतजी से मैं भ्रम में पड़ कर लड़ने को तैयार हो गया था। स्नेह भरतजी के विशुद्ध आचरण को देख कर प्रेम में मग्न हो गया । माद इस बात का कि अच्छा हुआ जो माकर मिला, नहीं तो बड़ा भारी अनर्थ हो जाता जो सुधारे न सुधरता । रस बुड्ढे ने अच्छी सुझाई । कुसल-मूल पद-पङ्कुज' पेखी । मैं तिहुँ-काल कुसल निज अब प्रभु परम-अनुग्रह तारे । सहित कोटि-कुल-मङ्गल मारे ॥१॥ कुशल-मूल श्राप के चरण-कमलों को देख कर मैं ने तीनों काल में अपना कुशल समझ लिया है। हे स्वामिन् ! अब आप की अत्यन्त कृपा से. मेरे यहाँ करोड़ों कुल सहित मङ्गल है ॥४॥ आपके दर्शन से बढ़ कर हमारे लिये दूसरा कुशल-माल क्या होगा । यह व्यङ्गार्य वाच्यार्थ के बरावर तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है। दो-समुझि मारि करतूति कुल, प्रभु महिमा जिय जोइ । जो न भजइ रघुधीर-पद, जग बिधि बञ्चित सोइ ॥१५॥ मेरी करनी और कुल को समझ कर एवम् प्रभु रामचन्द्रजी की महिमा को मन में विचार कर जो रघुनाथजी के चरणों की सेवा नहीं करते, वे संसार में विधाता द्वारा ठगे गये हैं अथित् उनके समान हतभाग्य कोई नहीं है ॥ १९५॥