पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५५५ चौ०-कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती। राम कीन्ह आपन जबही ते । भयउँ भुवन-भूषन तबही ते ॥१॥ मैं छली, कादर, कुबुद्धि और नीच-जाति लोक वेद से सब तरह बाहर हूँ, पर जब से राम- चन्द्रजी ने अपना किया, तब से मैं जगत का भूषण (माननीय) दुआ हूँ॥१॥ अपनी हीनता अस्पृश्यता कह कर रामचन्द्रजी के अपनाने पर भुवन-भूषण होना वर्णन स्वामी का महान गौरव व्यजित करने की ध्वनि है। देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई । मिलेउ बहोरि लखन लघु भाई ॥ कहि निषाद निज नाम सुबानी। सादर सकल जोहारी रानी ॥२॥ गुह की प्रीति को देख कर और उसकी मुहावनी बिनती सुन कर लक्ष्मणजी के छोटे भाई (शत्रुहनजी ) फिर से मिले । निषाद ने सुन्दर वाणी से अपनो नाम कह कर आदर. पूर्वक सम्पूर्ण रानियों को प्रणाम किया ॥२॥ जानि लखन सम देहि असीसा । जियहु सुखी सय लाख बरीसा ॥ निरखि निषाद नगर-नर-नारी । भये सुखी जन लखन निहारो॥३॥ लक्ष्मणजी के समान समझ कर आशीर्वाद देती है कि सौ लोख वर्ष तक सुख से जियो । नगर के स्त्री-पुरुष निषाद को देख कर ऐसे प्रसन्न मालूम होते हैं मानों लक्ष्मणजी को देख कर खुश हो ॥३॥ कहहिं लहेउ एहि जीवन-लाहू। मैंटेउ राम-भद्र भरि बाहू॥ सुनि निषाद निज-भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेबाई ॥४॥ सुब कहते हैं कि इसने जीने का लाभ पाया, कल्याण रूप रामचन्द्र जी से बाँह भर कर मिला है । निषाद अपने भाग्य की बड़ाई सुन कर प्रसन मन से लिवा ले चला ॥॥ इसने जीवन का लाभ पाया, इसका समर्थन हेतुसूचक बात कह कर करना कि कल्याण- स्वरूप रामचन्द्रजी से अकभर मिला 'काव्यलिङ्ग अलकार' है। दो०-सनकारे सेवक सकल, चले स्वामि रुख. पाइ। घर तरु-तर सर बाग बन, बास बनायन्हि जाइ ॥ १६ ॥ गुह ने सम्पूर्ण सेवकों को सनकी (इशारे) से समझा दिया, वे स्वामी का रुख पा कर चले । घर, वृक्षों के नीचे, तालाबों के किनारे, बगीचे और बनों में जाकर ठहरने योग्य (बटोर बटार सफाई करक) बनाया ॥१६॥ निषाद पहले युद्ध के लिये सेवकों को तैयार कर चुका है, उसको छिपाने की इच्छा से उन्हें इशारे से समझा दिया कि युद्ध नहीं, मेहमानी करनी होगी। उसके सङ्केत को समझ कर सेवक गण तदनुसार कार्य में लग गये युक्ति अलंकार' है। चौ०-सङ्गबेर पुर भरत दीख जब । भे सनेह-बस अङ्ग सिथिल तब ॥ सहित दिये निषादहि लागू । जनु तनु धरे बिनय अनुरागू ॥१॥ जब भरतजी नेगवेरपुर को देखा, तब स्नेह के वश उनके अङ्ग शिथिल हो गये। निषाद . ,