पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१७

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रामचरित-मानस । को लग दिये अर्थात् बगल में लिये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मान विनय और अनुराग शरीर धारण किये हो ॥१॥ निषाद और विनय, भरतजी और अनुराग परस्पर उपमेय उपमान हैं । बिनय और अनुराग शरीरधारी नहीं होते, यह केवल कवि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार है। एहि विधि भरत सेन सब सङ्गा । दीख जाइ जग-पावनि गङ्गा । रामघाट कह कीन्ह प्रनामू ।मा मन मगन मिले जनु रामू ॥२॥ इस प्रकार भरतजी सब सेना के साथ जाकर जगत को पवित्र करनेवाली गङ्गाजी को देखा । रामघाट को प्रणाम किया, उनका मन आनन्द में मग्न हो गया, ऐसा मालूम हुआ मानों रामचन्द्रजी मिले हो ॥२॥ करहिं प्रनाम नगर नर-नारी । मुदित ब्रह्म-मय बारि निहारी ॥ करि मञ्जन माँगर्हि कर जोरी। रामचन्द्र-पद प्रीति न धोरी ॥३॥ । नगर के स्त्री-पुरुष प्रणाम करते हैं और ब्रह्म-रूप जलको देख कर प्रसन्न होते हैं। स्नान कर के हाथ जोड़ कर वर माँगते है कि रामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति कभी कम न हो॥ एहू । सीय: भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू । सकल सुखद सेवक सुरधेनू ॥ जोरि पानि बर माँगउँ

राम-पद सहज सनेहू ॥१॥

भरतजी ने कहा-हे गङ्गाजी ! तुम्हारी रेणुका सेवकों के लिये कामधेनु कपिणो सम्पूर्ण सुखों को देनेवाली है। हाथ जोड़ कर यही वर माँगता हूँ कि सीताजी और रामचन्द्रजी' चरणों में स्वाभाविक स्नेह बना रहे ||॥ दो०-एहि बिधि मज्जन अरत करि, गुरु अनुसासन पाइ । मातु नहानी जानि सब, डेरा चले लेवाइ ॥ १९७ ॥ इस प्रकार भरतजी ने स्नान कर और यह जान कर कि सब माताएँ स्नान कर चुकीं, गुरुजी की आशा पाकर डेरा को लिवा ले चले ॥१६॥ चौ०-जह तह लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोध सब ही कर लीन्हा। गुरु सेवा करि आयसु पाई। राम-मातु पहिँ गे दोउ भाई ॥१॥ जहाँ वहाँ लोगों ने डेरा किया, भरतजी ने सभी की खोज लिया कि सब सुबीते से ठहर गये हैं। गुरुजी की सेवा करके और उनकी आशा पा कर दोनों भाई रामचन्द्रजी की माता- कौशल्याजी के पास गये ॥१॥ राजापुर की प्रति में और सभा की प्रति में 'सुर सेवा करि प्रायम् पाई पाठ है । इस पोठ से आगे का 'आयुस पाई निरर्थक हो जाता है। सभा की प्रति के टीकाकार ने अर्थ में