पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । म्वीच तान कर वही बात कही है। यथा-"फिर देव-पूजा करके गुरुजी की आशा पा कर दोनों भाई रामचन्द्रजी की माता के पास गये। प्रसङ्ग तो यही पुकार रहा है कि गुरु-सेवा करने के बाद दोनों बन्धु मातु-सेवा करने को पधारे। इसी से हमने गुटका का पाठ प्रधान में रक्खा है। चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी । जननी सकल भरत सनमानी ॥ भाइहि साँपि मातु-सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई ॥२॥ पाँव दवा कर और कोमल वाणी कह कह कर भरतजी ने सम्पूर्ण माताओं का सम्मान कियो । भाई-शत्रुहनजी को माताओं की सेवकाई सौंप कर आप निषाद को बुला लिया ॥२॥ चले सखा कर सौँ कर जोरे । सिथिल सरीर सनेह न थोरे। पूछत सखहि सेा ठाउँ देखाऊ । नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ ॥३॥ मित्र के हाथ से हाथ मिलाये हुए चले, उनके अम अत्यन्त स्नेह से शिथिल हो गये हैं। मित्र से पूछते हैं कि वह स्थान दिखाओ जिसमें आँख और मन की जलन तनिक ठंही हो ॥३॥ जह सिय-राम-लखन निसि सोये । कहत अरे जन लोधन कोये ॥ भरत बचन सुनि भयउ बिषादू । तुरत तहाँ लेइ गयउ निषादू ॥४॥ जहाँ सीताजी, रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी रात में सोये थे, इतना कहते आँखों के कोनों में जल भर आया । भरतजी के वचन को सुन कर निषाद दुःखी हुआ और तुरन्त यहाँ ले गया ॥४॥ दो-जहँ सिंसुपा पुनीत तरु, रघुबर किय विश्राम । अति सनेह सादर अरत, कीन्हेउ दंड प्रनाम ॥१॥ जहाँ पवित्र सीसम के वृक्ष के नीचे रघुनाथजी ने विश्राम किया था। भरतजी ने अदार के साथ अत्यन्त स्नेह से दण्डवत प्रणाम किया ॥१६॥ चौ०-कुस साधरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनाम प्रदच्छिन जाई । चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई ॥१॥ कुशा की सुहावनी गोनरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया । चरण-चिन्ह की धूलि आँखों में लगाई, प्रोति की अधिकतो कहते नहीं बनती है ॥ १.॥ कनकबिन्दु दुइ ' चारिक देखे । राखे सीस सीय सम लेखे ॥ सजल बिलोचन हृदय गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानो ॥२॥ सीताजी के भूषणों से जो दो चार सुवर्ण के रवे गिरे थे, उन्हें देख कर जानकीजी के समान समझ कर सिर पर रख लिये । नेत्रों में जल भर आया और ग्लानि पूर्ण हदय से सुन्दर वाणी में सखा से वचन कहते हैं ॥२ ।