पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१९

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रामचरित मानस । श्रीहत सीय-बिरह दुति-हीना । जथा अवध नर-नारि मलीना ॥ पिता जनक देउँ पटतर केहो । करतल भाग जोग जग जैही ॥३॥ सीताजी के वियोग से ऐसे कान्ति-हीन हुए हैं, जैसे अयोध्या के स्त्री-पुरुष उदास है। पिता राजा जनक की बराबरी किसको दूं, संसार में भोगविलास और योगाभ्याम जिनकी मुट्ठी में है ॥ ३॥ ससुर भानुकुल-भ्रानु झुआलू । जेहि सिहात अमरावति-पालू । प्राननाथ रघुनाथ गोसाँई । जो बड़ होत से राम बड़ाई ॥४॥ जिनके ससुर सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथजी, जिनको इन्द्र सिहाते हैं | समर्थ रघु. नाथजी जिनके प्राणेश्वर हैं, जो बड़ा होता है वह रामचन्द्रजी की दो दुई बड़ाई से होता है॥४॥ दो-पतिदेवता सुलीय मुनि, सीय साथरी देखि । बिहरत हृदय न हहरि हर, पबि तें कठिन बसेखि ॥१९॥ सुन्दर पतिव्रता स्त्रियों में रन रूपिणी सीताजी की गोनरी देख कर भी मेरालय इहर कर फट नहीं जाता, या-शङ्कर ! यह वज़ से भी बढ़ कर कठोर है १ ॥ १० ॥ चौ०-लालन जोग लखन लघु लोने । भे न भाइ असं अहहिँ न होने ॥ पुरजन प्रिय पितु-मातु दुलारे । सिय-रघुबीरहि प्रान-पियारे ॥१॥ सुन्दर लघु यन्धु लक्ष्मण प्यार करने योग्य हैं, ऐसा भाई न हुान है और न आगे होने वाला है । जो नगर-निवासियों के प्यारे, माता-पिता के दुलारे और सीताजी रघुनाथजी के प्राणप्यारे हैं ॥१॥ मृदु भूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ । ते बन सहहिँ बिपति सब भाँती । निदरे कोटि कुलिस ऐहि छाती ॥२॥ कोमल शरीर सुकुमार स्वभाव जिनकी देह में कभी गरम हवा तक नहीं लगी। वे बन में सब तरह की विपत्तियों को सहते हैं, मेरी छाती करोड़ों वनों का निरादर करनेवाली है अर्थात् यह जान कर भी टुकड़े टुकड़े नहीं हो जाती ॥२॥ राम जनमि जग कीन्ह उजागर । रूप-सील-सुख सब गुन सागर । परिजन पुरजन गुरु पितु माता । राम सुमाउ सबहि सुख-दाता ॥३॥ रूप, शील, सुख और सब गुणों के समुद्र रामचन्द्रजी ने जन्म लेकर जगत को उँजेला किया। नगर निवासी, कुटुम्बी, गुरु पिता और माता सव के लिये रामचन्द्रजी का स्वभाव सुखदायी है ॥३॥ 1