पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२३

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५६२ रामचरित मानस । सेवक को धर्म सब से कठिन है । भरतजी की दशा देख कर और उनकी कोमल वाणी सुन कर सब सेवक-गण ग्लनि से गले जाते हैं ॥४॥ भरतजी ने सेषकों से नहीं कहा, कि तुम भी जूते उतार डालो । परन्तु उनकी क्रिया मात्र से सेवकों को मनस्ताप होना कि राजकुमार उवेने पाँव पैदल चले और हम खोग जूते पहन, मुझे धिक्कार है। यह लक्षणामूलक अविवक्षित वाच्यध्वनि है। दो-भरत तीसरे पहर कह, कीन्ह प्रबेस प्रयाग। कहत रामसिथ रामसिय, उमगि उमगि अनुराग ॥ २३ ॥ भरतजी तीसरे पहर को प्रयाग में प्रवेश किया। प्रेम में उमड़ उमड़ कर सीतार सीताराम कहते जाते हैं ॥२०॥ चौ-मालका झलकत पायन्ह कैसे । पङ्कज-कास ओस-कन जैसे । भरस पयादेहि आये आजू । भयउ दुखित सुनि सकल समाजू ॥१॥ भरतजी के पाँवों में फफाले कैसे झलकते हैं, जैसे कमल के सम्पुट में ओस की बूंदे हो। आज भरतजी पैदल आये, यह सुनकर सारा समाज दुखी हुआ ॥१॥ भरतजी के कष्ट को विचार कर श्रार अपनी भूल समझ कर सारा समाज दुखी हुआ कि जिस मार्ग में रामचन्द्रजी पैदल गये हैं, उस में हम लोग सवारियों में बैठ कर भाये; वड़ी भूल हुई । यहाँ भी अविवक्षितवाच्य ध्वनि है। खबरि लीन्ह सब लोग नहाये । कीन्ह प्रनाम त्रिबेनिहि आये । सबिधि सितासित-नीर नहाने । दिये दान महिसुर सनमाने ॥२॥ सब लोगों के स्नान करने का पता भरतजी ने लिया, फिर आप त्रिवेणी तट पर आये और प्रणाम किया। विधि-पूर्वक गङ्गा-यमुना के जल में स्नान किया और ब्राह्मणों का सत्कार कर दान दिया ॥२॥ देखत स्यामल-धवल हलोरे । पुलकि सरीर भरत करजोर। सकल काम-प्रद तीरथराऊ । बेद-बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥३॥ श्यामल-यमुनाजी की और सफेद-गंगाजी की लहरों को देख कर पुलकित शरीर से भरतजी हाथ जोड़ कर बोले । हे तीर्थराज ! सम्पूर्ण कामनाओं के देनेवाले हैं श्राप की महिमा वेदों में विख्यात और संसार में प्रसिद्ध है ॥३॥ माँगउँ भीख त्यागि निज-धरमू । आरत काह न करइ कुकरमू अस जिय जानि सुजान सुदानी । सफल करहिं जग जाचक बानी ॥४॥ मैं अपने धर्म को त्याग कर भीख माँगता हूँ, दुखी मनुष्य कौम, सा कुकर्म नहीं करते ! ऐसा मन में समझ कर अच्छे चतुर दानी संसार में मजनों की वाणी को सफल करते हैं |