पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५६३ अनन्य भक्त को अपने इष्टदेव के सिवा दूसरे से याचना करना अधर्म समझ कर भरतजी अपना धर्म त्यागना कहते हैं । पुनः ममता क्षत्रिय-धर्म के विरुद्ध है। इसी से उसको कुकर्म कहा है। दो०-अरथ न धरम न काम-रुचि, गति न चहउँ निरबान । जनम जनम रति राम-पद, यह बरदान न आन ॥ २० ॥ न अध, न धर्म, न काम की इच्छा है और न मोक्ष ही चाहता हूँ।जन्म जन्म रामचन्द्रजी के चरणों में मेरी प्रीति हो, इस वरदान के सिवा दूसरा कुछ मुझे न चाहिये ॥२०४॥ चौ०-जानहु राम कुटिल करि माही। लोग कहउ गुरु-साहिब-द्रोही ॥ सीता-राम-चरन रति मारे । अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तारे ॥ १ ॥ रामचन्द्र मुझ को फुटिल ही कर के जाने और लोग गुरु एवम् स्वामी का द्रोही कहैं । पर आपकी कृपा से दिन दिन मेरे मन में सीताजी रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम बढ़े ॥१॥ जलद जनम-भरि सुरति बिसारउ । जाचत जल पबि पाहन डारउ ॥ चातक-रटानि घटे घटि जाई। बढ़े प्रेम संब माँति मलाई ॥२॥ मेघ जन्म भर सुध भुला दे और जल मांगते हुए वन तथो पत्थर बरसावे । परन्तु चातक की रटनि घटने से उसकी मर्यादा घट जायगी, उसको सब तरह भलाई प्रेम बढ़ने ही यहाँ एकाङ्गी प्रीति वर्णन है, स्वामी कुटिल ही समझे और लोग गुरु-स्वामिद्रोही कहें पर मेरो प्रीति स्वामी के चरणों में बढ़े। इसका दृष्टान्त बादल और पपीहा से देते हैं कि मेध चाहे जितनी निष्ठुरता करे किन्तु चातक की प्रशंसा अपनी टेक न त्यागने ही में है। कनकहि बान चढ़इ जिमि दाहे । तिमि प्रियतम-पद नेम निबाहे ॥ भरत बचन सुनि माँझ त्रिबेनी । भइ मृदु-बानि सुमङ्गल देनी ॥ ३ ॥ जैसे तपाने पर सोने में कान्ति चढ़ती है, तैसे ही स्वामी के चरणों में नेम निबोहने से सेवक की बड़ाई होती है । भरतजी के वचनों को सुन कर त्रिवेणी के मध्य (जल धारा) से सुन्दर मङ्गल देनेवाली कोमल वाणी हुई ॥३॥ जल के जिहा नहीं जो बोल सके, बिना जीम रूपी आधार के सुन्दर बाणी का रक्षित होना 'प्रथम विशेष अलंकार है। तात भरत तुम्ह सब विधि साधू । रामचरन अनुराग अगाधू ॥ यादि गलानि करहु मन माहीं । तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाही॥४॥ हे प्रिय भरत ! तुम सब तरह से साधु हो और रामचन्द्र जी के चरणों में तुम्हारा अथाह . प्रेम है । व्यर्थ हो मन में ग्लानि करते हो, तुम्हारे समान रामचन्द्रजी को कोई प्रिय नहीं में है ॥२॥ . ।