पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२७

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२६६ रामचरित-मानस। चौ०-सा तुम्हार धन जीवन प्रोना । भूरि-भाग को तुम्हहिँ समाना। यह तुम्हार आंचरज न ताता। दसरथ-सूअन राम-प्रिय-माता वह (राम-चरणानुराग) श्राप का जीवन-धन और प्राण है. आप के समान पड़ा भाग्य. वान कौन है ? हे तात ! आप के लिये यह श्राश्चर्य नहीं है, क्योंकि आप दशरथजी के पुत्र और रामचन्द्रजी के प्यारे बन्धु हैं ॥१॥ सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। प्रेमपात्र तुम्ह सम कोउ नाहीं। लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहिँ सराहत बीती ॥२॥ हे भरत ! सुनो, रघुनाथजी के मन में आपके समान प्रेम का भाजन दूसरा कोई नहीं है । लक्ष्मणजी, रामचन्द्र जी और सीताजी को अत्यन्त प्रोति से सारी रात प्रापही की सरा- हना करते बीती ॥२॥ जाना मरम नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरे अनुरागा। तुम्ह पर अस सनेह रघुबर के । सुखजीवन जग जस जड़नर के ॥३॥ प्रयागराज में स्नान करते समय,मैं ने इस भेद को जाना कि आप के प्रेम में मन हो रहे थे। रघुनाथजी का स्नेह आप पर ऐसा है, जैसे संसार में मूर्ख मनुष्य को सुख से जीवन प्रिय है ॥३॥ नहात प्रयागा में कोई कोई 'भरत खंडे' सङ्कल्प में भरतजी का नाम सुन कर प्रसन्न होना कहते हैं । यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि दुःख का जीवन ज्ञानी अज्ञानी मूर्व विज्ञान किसी को प्रिय नहीं, फिर ऐसा उदाहरण क्यों दिया ? | उत्तर-झानी सुख और दुःस में हर्ष विषाद नहीं मानते । मूर्ख सुख में सुनी और दुःख में दुःखी होते हैं। इसी से वह सुख की चाहना करता है, किन्तु शानी किसी को चाहना वा उपेक्षा नहीं करते । बस यही दोनों में अन्तर है। यह न अधिक रघुबीर बड़ाई । प्रनत-कुटुम्ब-पाल रघुराई। तुम्ह तउ भरत भार मत एहू। धरे देह जनु राम-सनेहू usa रघुनाथजी की यह अधिक घड़ाई नहीं है, क्योंकि वे शरणागों के कुटुम्ब के पासक हैं। हे भरत ! मेरा यह सिद्धान्त है कि श्राप तो ऐसे मालूम होते हैं मानों शरीर धारण किये हुए रामचन्द्रजी के स्नेह ह ॥४॥ स्नेह शरीरधारी नहीं होता, यह मुनि की कल्पनामात्र 'अनुक्कविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो-तुम्ह कहँ भरत कलङ्क यह, हम सब कहँ उपदेस । रामभगति-रस सिद्धि-हित, मा यह समउ गनेस ॥ २० ॥ हे भरत ! आप को यह कलङ्क हम सब को उपदेश है। रामचन्द्रजी की भक्ति का प्रानन्द वान्छित-लाभ के लिये यह समय हो श्रीगणेश हुआ है ॥२०॥