पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२८

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। प्रथम सोपान, अयोध्याकाण्ड ।. ५६७ ध्यक्षार्थ से यह प्रकट होना कि जब आपने रामचन्द्रजी की भक्ति के लिये इतने बड़े राज्य- सुख को पा कर तिनके की भाँति त्याग दिया, तब हम सब ब्राह्मण तपस्वियों को इस अनुपम वैराग्य ने ईश्वर की ओर लगने का शुभ-उपदेश देनेवाला है। यह समय रामभक्ति प्राप्ति के लिये भीगणेश (प्रारम्भकाल) है। श्राप के इस आचरण से रामानुरागी होने के लिये हम लोगों को शिक्षा मिल रही है। चौ०-नव-बिधु-बिमल तात जस तोरा । रघुबर-किङ्कर-कुमुद चकोरा ॥ उदित सदा अथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥१॥ हे तात ! ओप का निर्मल यश नवीन चन्द्रमारूप है और रघुनाथ जी के दास कुमुद-पुष्प तथा चकोर हैं । वह कभी अस्त न होगा और न घटेगा, संसार रूपी आकाश में दिन दिन दूनी वृद्धि के साथ सदा उदय रहेगा ॥१॥ भरतजी का यश-उपमेय और चन्द्रमा उपमान है । उपमेय में उपमान से अधिक गुण दिखा कर एकरूपता स्थापित करना 'अधिकअभेदरूपक अलंकार' है। चन्द्रमा नित्य नये नहीं रहते; कलङ्कयुक्त हैं, सदा उदय नहीं अस्त होते और घरते बढ़ते रहते.वो श्राकाशचारी हैं। यश रूपी चद्रमा में अधिकता यह है कि वह रोज़ नया, निर्मल सदा उदया कमी अस्त नहीं होता, संसार रूपी आकाश को विहारी है । चन्द्रमा से कुमुद चकोर प्रेम करते हैं, यहाँ यश रूपी चन्द्रमा के रघुवर भक्त कुमुद चकोर हैं। कोक तिलोक प्रीति अति करिहीं । प्रभु प्रताप-रबिछबिहि न हरिहीं। निसि दिन सुखद सदा सब काहू । ग्रसिहि न कैकइ करतब राहू ॥२॥ (मुक्त,मुमुक्षु, विषयी) तीनों प्रकार के लोग चकवापक्षी रूपी अत्यन्त प्रोति करेंगे, प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप रूपी सूर्य इसकी शोभा (प्रकाश) को न हरेगा । रात्रि दिन सब को सदा सुभदायक होगा, केकई का कर्तव्य रूपी राहु नहीं प्रसेगा ॥२॥ चन्द्रमा से चकवा प्रेम नहीं करता, सूर्या उसके प्रकाश को हर लेते हैं, चन्द्रमा रात दिन सब को. सुखदायी नहीं होते और राष्ट्र प्रसता है । परन्तु यश रूपी चन्द्रमा के गुण इसके विप- रीत अधिकत्व पूर्ण हैं। पूरन • राम सुप्रेम पियूषा । गुरु-अपमान दोष नहिँ दूषा । रामभगत अब अमिय अघाहू । कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहू ॥३॥ रामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेम रूपी अमृत से भरपूर है, इसको गुरुके अपमान का दोष कल- किंत नहीं कर सका । हे रामभक्तो ! अब अमृत से अधाते जाओ, भरतजी ने यह अमृत पृथ्वी. तल पर मिलने योग्य किया है॥३॥ चन्द्रमा में अमृत है, यश रूपी चन्द्रमा में रामचन्द्रजी का सुन्दर प्रेम अमृत है । चन्द्रमा में गुरु के अपमान का दुषण है किन्तु भरतजी ने गुरु की पात नहीं मानी, तो भी यशरूपी चन्द्रमा कलङ्कित नहीं हुआ। चन्द्रमा प्रकाश में टंगा है, उसमें अमृत सुना जाता है और यश कपी चन्द्रमा का अमृत वसुधातल पर सुलभ है। सभी अधिकत्व दिखाने का भाव है। .