पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२९

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6 तात गलानि रामचरित-मानस। ५६८ भूप भगीरथ सुरसरि आनी । सुमिरत सकल सुमङ्गल-खानी ॥ दसरथ-गुन-गन बरनि न जाहौँ । अधिक कहा जेहि सम जगनाहीं ॥2॥ राजाभागीरथ गङ्गाजी को ले श्राये, जिनका स्मरण सम्पूर्ण सुन्दर महलों की शानि है। वशरथजी के गुण वर्णन नहीं किये जा सकते, बढ़ कर तो क्या ? जिनके समान संसार में कोई नहीं है ॥४॥ दो०-जासु सनेह सकोच बस, राम प्रगट भये आइ । जे हर-हिय-नयननि कबहुँ, निरखे नहीं अघाइ ॥२०॥ जिनके स्नेह और संकोच वश रामचन्द्रजी श्राफर धरती पर प्रकट हुए, जिन्हें इवयं की आँखों से निरख कर शिवजी कभी अघाते नहीं ॥२०॥ चौ०-कीरसि-बिधु तुम्ह कीन्हि अनूपा । जहँ वस राम-प्रेम मृग-रूपा। जिय जाये । डरहु दरिद्रहि पारस पाये ॥१॥ आपने कीर्ति रूपी अनुपम चन्द्रमा प्रकट किया, जहाँ रामचन्द्रजी का प्रेम पी मृग निवास करता है । हे तात ! अपने मन में व्यर्थ ही ग्लानि करते हो, पारस पत्थर पाकर दरिद्र से डरते हो ॥१॥ सुनहु भरत हम झूठ न कहीं। उदासीन तापस बन रहहीं ॥ सब सोधन कर सुफल सुहावा । लखन राम सिय दरसन पावा ॥२॥ हे भरत! सुनिये, हम झूठ नहीं कहते, क्योंकि उदासीनभाव, तपस्वी और वन में रहते हैं। सव साधनों का सुन्दर सुहावना फल रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी का दर्शन पाना है ॥२॥ झूठ न कहने का कारण एक उदासीन भाप ही पर्याप्त है, तिस पर तपस्वी, बनबासी आदि अन्य प्रबल हेतुओं का वर्तमान रहना 'वियोय समुच्चय अलंकार' है। तेहि फल कर फल दरस तुम्हारा । सहित प्रयाग सुभोग हमारा॥ भरत धन्य तुम्ह जग जस जयऊ । कहि अस प्रेम मगन मुनि भयज ॥३॥ उस फल का फल आप का दर्शन है, प्रयाग के सहित इमारा सौभाग्य है। हे मरत! आप धन्य हैं जो संसार में ऐसा निर्मल यश उत्पन्न किया, यह कह कर मुनि प्रेम में मग्न हो गये॥३४ सुनि मुनि बचन सभासद हरषे । साधु सराहि सुमन सुर बरपे । धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा । सुनि सुनि भरत मगन अनुरागा ॥४॥ मुनि के वचन सुन कर सभा के लोग हर्षित हुए और देवता सत्य सत्य कह कर बड़ाई करके फूल बरसाते हैं। आकाश और प्रयाग में धन्य धन्य काशब भर गया, सुन सुन कर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं | 2 e