पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३

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रामचरितमानस १२ दुख-सुख पाप-पुन्य दिन-राती । साधु-असाधु सुजाति-कुंजाती । दानव-देव ऊँच अरु नीचू । अमिय सजीवन माहुर मीचू ॥ ३ ॥ दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, सजन असज्जन, सुजाति कुजाति, दानव-देवता, ऊँच और नीच, अमृत जिलानेवाला तथा विप मृत्यु करनेवाला ॥ ३ ॥ माया ब्रह्म जीव-जगदीसा । लच्छि-अलच्छि रङ्क-अवनीसा ॥ कासी-मग सुरसरि-क्रमनासा । मरु-मालव महिदेव-गवासा ॥ ४ ॥ मायो-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, लक्ष्मीवान-विना लक्ष्मी का, कहाल-राजा, काशी-मगह, गङ्गा- कर्मनासा, मारवाड-मालवा, ब्राह्मण और कसाई ॥४॥ ब्रह्म-ईश्वर को ब्रह्मा के प्रपञ्च में मिलाजुला कहना 'विरोधाभास अलंकार' है, क्योंकि वे ब्रह्मा की सृष्टि से परे हैं, यहाँ गुण-दोष की गणना मात्र है । सरग-नरक अनुराग-बिरागा । निगम-अगम गुन-दोष-विभागा ॥५॥ स्वर्ग-नरक, प्रीति और वैराग्य, वेद शास्त्रों ने इनके गुण देोप अलगाये है ॥ ५॥ दो०-जड़-चेतन गुन-दोष मय, बिस्व कीन्ह करतार । सन्त हंस गुन गहहिँ पय, परिहरि बारि बिकार ॥ ६ ॥ ब्रह्मा ने संसार को जड़-चेतन और गुण-शेप मय बनाया है । सन्त रूपी हंस गुण रूपी दूध को ग्रहण करते और दोष रूपी जल को त्याग देते हैं ॥ ६ ॥ चौ०-अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहि मन राता॥ काल सुभाउ करम बरिआई । अलउ प्रकृति-बस चुकइ भलाई ॥१॥ जब विधाता ऐसा विचार देते हैं, तब दोपों को छोड़ कर मन गुणों में अनुरक्त होता स्वभाव और कर्मों की प्रबलता से अच्छे लोग भी प्रकृति (माया) के वश हो कर भलाई से चूक जाते हैं अर्थात् चुराई में पड़ जाते हैं ॥ १ ॥ सो सुधारि हरिजन जिसि लेही । दलि दुख दोष बिमल जस देहीं । खलउ करहिँ अल पाइ सुसङ्ग । मिटइ न मलिन सुभाउ अHङ्ग ॥२ उस (भूल ) को जिस प्रकार हरिभक्त सुधार लेते हैं कि दुःख और दोपों का नाश कर निर्मल यश देते हैं। दुष्ट भी अच्छा संग पा कर भलाई करते हैं, पर उनकी अभङ्ग नीच- जिस तरह काल, स्वभाव और प्रकृतिवश अच्छे लोग बुराई कर बैठते हैं, उसी तरह अच्छे सङ्ग में पड़ कर दुष्ट भलाई. कर जाते हैं, किन्तु दानों पलट कर फिर अपना पूर्वरूप प्रहण कर लेते हैं। दूसरे का गुण ग्रहण कर फिर अपने गुण में थाना 'पूर्वरूप अलंकार' है। काल, प्रकृति नहीं मिटती ॥२॥