पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३०

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बोले ॥२१०॥ 7 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । दो०-पुलक-गात हिय-रामसिय, सजल सरोरुह नयन । करि प्रनाम मुनि मंडलिहि, बोले गदगद बयन ॥ २१० ॥ भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, उनके हृदय में रामचन्द्रजी और सीताजी विराज- मान हैं, कमल नेत्रों में आँसू भरा है। मुनि मण्डली को प्रणाम करके अत्यन्त प्रेम-पूर्ण वचन चौ०-मुनि समाज अरु तीरथराजू । साँचिहु सपथ अघाइ अकाजू ॥ एहि थल जी किछु कहिय बनाई । एहि सम अधिक न अंघ अधमाई ॥१॥ मुनि-मण्डली और तीर्थराज के बीच सच्ची सौगन्द खाने से भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बना कर कहा जाय तो इसके समान अधिक पाप और नोचता नहीं है ॥१॥ भूट न बोलने के योग्य एक मुनि-मण्डली के बीच में कहना काफ़ी है, तिस पर तीर्थ- राज में, अन्य प्रपल हेतु का वर्तमान रहना 'द्वितीय प्रमुच्चय अलंकार है। तुम्ह सर्बज्ञ कहउँ सतिभाऊ । उर-अन्तरजामी रघुराज॥ मोहि न मातु करतब कर सोचू । नहिं दुख जिय जग जानहि पोचू ॥२॥ सत्य कहता, आप सर्वश हैं और रघुनाथजी हृदय की बात जाननेवाले हैं। मुझे माता के कर्तव्य का सोच नहीं है और न इसी बात का मन में दुःख है कि संसार नीच सम- मेगा ॥२॥ 'सर्वक्ष और उर-अन्तर्यामी' संज्ञाथै साभिप्राय हैं, क्योंकि सर्वज्ञ ही सत्य-मूठ जानने में समर्थ और उर अन्तर्यामी ही हृदय की बात जानने में समर्थ हो सकता है। 'जग' जड़ है उसको समझने की शक्ति नहीं है। परन्तु बोलचाल में ऐसा कथन प्रसिद्ध है, यह उपादान लक्षणा है जिससे जगत के लोगों का बोध होता है । नाहि न डर बिगरिहि परलोकू । पितहु मरन कर मोहि न सेकू । सुकृत सुजस भरि भुवन सुहाये । लछिमन राम सरिस सुत पाये ॥३॥ परलोक के विगड़ने का डर नहीं है और पिता के मरने का भी मुझे शोक नहीं है उनका सुन्दर पुण्य और सुहावना यश भूमण्डल में छाया है, जो लक्षमण और रामचन्द्रजी के समान पुत्र पाये ॥३॥ राम-बिरह तजि तनु छनङ्ग । भूप सोच कर कवन प्रसङ्ग ॥ राम-लखन-सिय बिनु पग पनहीं । करि मुनि बेष फिरहिँ बन बनहीं॥४॥ क्षणभङ्गी शरीर को रामचन्द्रजी के बियोग में तज दिया, फिर राजा के लिये सोच की कौन सी बात है। रामचन्द्र, लक्ष्मणजी और साताजी मुनि का वेश बना कर पाँव में विना पनष्ठी के जाल जङ्गल फिरते हैं ॥४॥ ७२