पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३५

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॥३॥ रामचरित मानस । ५७४ चौ-कीन्ह निमज्जन तीरथराजा । नाइ मुनिहि सिर सहित समाजा॥ रिणिआयलु असीस सिर राखी । करि दंडवत बिनय बहुमाखी ॥१॥ तीर्थराज में स्नान किया और समाज के. सहित मुनि को मस्तक मवाया। ऋषिकी आशा और आशीर्वाद को सिर पर रख कर दण्डवत करके बहुत प्रार्थना की ॥१॥ पथ-गति-कुसल साथ सब लीन्हे । चले चित्रकूटहि चित दोन्हे ॥ राम-सखा दीन्हे लागू। चलत देह धरिजनु अनुरागू ॥२॥ रास्ते की चाल में प्रवीण मनुष्यों को साथ लिये सब चित्रकूट की ओर मन लगाये चले। निषादराज का हाथ पकड़े उसको बगल में लिये भरतजी चलते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो प्रेम शरीर धारण कर जाता हो॥२॥ अनुराग शरीरधारी नहीं होता, यह कवि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। नहिं पदनान सीस नहि छाया । प्रेम नेम ब्रत धरम अमाया ॥ लखन-राम-सिय पन्थ-कहानी। पूछत सखहि कहत मृदु बानी पाँव में पनहीं नहीं और सिर पर छाता नहीं है, प्रेम, नेम, व्रत और धर्म कपट-रहित है। लक्ष्मणजी, रामचन्द्रजी और सीताजी को रास्ते की कथा सखा से पूछते हैं, वह कोमन वाणी से कहता जाता है ॥३॥ राम-बास-थल बिपट बिलोके । उर 'अनुराग रहत नहिँ रोके । देखि दसो सुर बरिसहिँ फूला । भइ मृदु महि मग मङ्गलमूला ४॥ रामचन्द्रजा के टिकने की जगह और वृक्ष को देख कर हदय में प्रेम रोकने से नहीं रुकता (उमड़ा पड़ता ) है । भरतजी की दशा देख कर देवता फूल बरसाते हैं और पृथ्वी कोमल हुई रास्ता मङ्गलमूल हो गया ॥४॥ दो किये जाहिं छाया जलद, सुखद बहइ बर बात। तस मग भयड न राम कहें, जसं मा भरतहि जात ॥२६॥ बादल छाँह किये जाते हैं और सुख देनेवाली अच्छी हवा बहती है। वैसा रास्ता रामचन्द्रजी को नहीं हुश्रा जैसा भरतजी के जाते समय सुगम हुआ ॥ २१६ ॥ देवताओं का फूल बरसा कर मार्ग प्रतलाना, धरती का कोमल होना, रास्ता मनखीक, मेधों का छाँह करना, सुखदायी बयार का चलना, इस आकस्मिक कारणान्तर के योग से भरतजी को राह चलने में सुगमता होना 'समाधि अलंकार' है। पहले देवताओं को सन्देह था कि भरतजी रामचन्द्रजी को लौटाने जाते हैं, इससे प्रयागराज के पूर्व मार्ग में सभी कष्टः दायक उद्योग किये। भरतजी के पाँवों में फफोले पड़ गये, लू चली, धरती कठोर हुई इत्यादि । पर तीर्थराज में भरतजी का वरदान माँगना सुन कर वह सन्देह दूर हो गया। इसी से अष मार्ग में सब तरह को सुगमता कर रहे हैं। , 9 1