पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५७७ र्शन चक्र को राजा की रक्षा के लिये भेजा । चका को देखते ही मुनि डर कर भगे और चक्र ने पीछा किया। तीनों लोकों में दौड़ते फिरे पर कहीं ठिकाना न लगा । अन्त में जव अम्बरीष की शरण आये, तब उन्होंने प्राण-रक्षा की । इस ईर्या से घोर तप किया, भगवान प्रकट होकर बोले वर माँगा। मुनि ने वर माँगा कि अम्बरीष को दस हज़ार जन्म लेना पड़े। भगवान ने कहा यह मेरा सच्चा सेवक है, तुम नाहक द्वेष मान कर उसका अनिष्ट चाहते हो। दुसरे जीवों का एक हजार बार जन्म लेना और मेरा एक बार दोनों बराबर है। अम्बरीष के लिये मैं इस बार जन्म लूँगा, पर भक्त को कष्ट न होने दूंगा। दो-मनहुँ न आनिय अमरपति, रघुबर-भगत अकाज । अजस-लोक परलोक-दुख, दिन दिन सोक-समाज ॥२१८।। हे देवराज ! रधुनाथ जी के भात को अकाज मन में भी न ले आइये । इसले लोक में अपकीति और परलोक में दुम्न तथा दिन दिन शोक-समूह वढ़ेगा ॥२१॥ चौ०-सुनु सुरेस उपदेस हमारा । रामहि सेवक परम-पियारा ॥ मानत सुख सेवक सेवकाई । सेवक-बैर बैर-अधिकाई ॥१॥ हे देवपति! हमारा उपदेश सुनो, रामचन्द्र जी को सेवक अत्यन्त प्यारे हैं। एक की सेवा करने से वे प्रसार होते हैं और सेवक से विरोध करने पर बड़ा भारी बैर मानते हैं ॥१॥ जद्यपि सम नहिं राग न रोचूं । गहहिँ न पाय पुन्य गुन दोषू ॥ करम-प्रधान बिस्व करि राखा । जो जस करइ सेतस फल चाखा॥२॥ यद्यपि समदर्शी हैं, उनमें ममता नहीं और न क्रोध है, पाप, पुण्य, गुण, दोष नहीं प्रहण करते । संसार को कर्म-प्रधान बना रखा है, जो जैसा करता है वह वैसा फल पाता है ॥२॥ विश्व तो कर्म प्रधान का क्षेत्र स्वयम् सिद्ध अर्थ है परन्तु सुरगुरु का पुनः उसी का विधान करना 'विधि अलंकार' है। . तदपि करहि सम विषम बिहारा । भगत अभगत हृदय अनुसारा ।। अगुन अलेप अमान एकरस । राम सगुन भये भगत-प्रेम-बस ॥३॥ तथापि भक्त अभकों के हृदयानुसार सम और विषम रूप से व्यवहार करते हैं । जो रामचन्द्रजी निर्गुण, निलेप, निरभिमान और एकरस हैं, वे ही भक्तों के प्रेम के अधीन होकर सगुण (शरीरधारी) हुए हैं ॥३॥ विरोधी गुण और क्रिया का वर्णन अर्थात् समदर्शी होकर भी विषम विहार, निर्गुण- निर्लेप होकर शरीरधारी होना 'निरोधाभास अलंकार है। सभा की प्रति में 'अगुन अलेख भमान एकरस' पोठ है। राम सदा सेवक रुचि राखी । बेद पुरान साधु सुर अस जिय जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत-पद-प्रीति सुहाई ॥१॥ रामचन्द्रजी सदा से सेवकों की रुचि रखते आये हैं, इस बात के वेद, पुराण, साधु 1 साखी॥