पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३९

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। 7 ५७८ रामचरित-मानस । और देवता साक्षी है । ऐसा मन में समझ कर, टिलता को त्याग दो और भरतजी चरणों में सुन्दर प्रीति करो Men दो-राम-भगत परहित-निरत, पर दुख दुखी दयाल । भगत-सिरोमनि भरत तँ, जनि डर पहु सुरपाल ॥२१॥ रामभक्त पराये की भलाई में तत्पर रहते हैं, और पराय के दुःख से ट्यावश दुखी होते हैं। हे देवराज ! भक्तों के शिरोमणि भरतजी से तुम डरो मत ॥२१॥ चै०-सत्यसन्ध प्रभु-सुर-हितकारी । भरत राम-आयसु अनुसारी॥ स्वारथ-निबस बिकल तुम्ह हाहू। भरत दोष नहि राउर माहू ५१॥ प्रभु रामचन्द्रजी सत्यसङ्कल्प और देवताओं के हितकारी हैं, भरतजी रामचन्द्रजी की माशानुलारं चलनेवाले हैं। तुम स्वार्थवश विकल होते हो, इसमें भरतजी का दोष नहीं; यह आपका अक्षान है ॥१॥ भरतजी का अपार प्रेम देख कर इन्द्र को भ्रम हुआ कि रामचन्द्रजी प्रेम के अधीन है, कही भरत ने लौटने को कहा तो वे इनकार न कर सकेंगे। इस भ्रम से उत्पन्न हुई शङ्का को बृहस्पतिजी ने सच्ची बात कह कर दूर कर दी 'भ्रान्त्यापहति अलंकार' है। सुनि सुरबर सुरगुरु-बर-बानी । मा, प्रमोद मन मिटी गलानी॥ । हरषि सुरराज । लगे सराहन भरत सुभाऊ ॥२॥ वृहस्पतिजी की श्रेष्ठवाणी को सुन कर इन्द्र के मन में बड़ा हर्ष हुआ और ग्लानि मिट गई । देवराज ने प्रसन्न होकर फूल बरसा और भरतजी के स्वभाव की प्रशंसा करने लगे ॥२॥ इन्द्र के मन से शङ्का भाव की शान्ति गुरुजी के सदुपदेश मति भाव द्वारा हुई है। यह 'समाहित अलंकार है। एहि बिधि भरत चले मग जाहीँ । दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाही । जबहिँ राम कहि लेहि उसासा । उमगत प्रेम मनहुँ. चहुँ पासा ॥३॥ इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जाते हैं, उनकी दशा देख कर मुनि और सिद्ध बड़ाई करते हैं । जव 'राम' कह कर लम्बी साँस लेते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों चारों ओर प्रेम उमड़ता हो ॥३॥ प्रेम कोई जल, नदी या तालाय नहीं जो उमगता हो। यह कषि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। वहिँ बचन सुनि कुलिस पखाना । पुरजन प्रेम न जाइ बखाना ॥ बीच बास करि जमुनहिँ आये । निरखि नीर लोचन जल छाये ॥४॥ भरतजी के पचन सुन कर वन और पत्थर पिघल जाते हैं, पुरजनों का प्रेम कहा नहीं जा सकता। बीच में निवास कर यमुनाजी के किनारे आये और उनका श्याम-जल देख कर . आँखों में जल भर आया Rel बरषि प्रसून 6