पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४०

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५७६ बात सुन कर पज और पत्थर का पिघलना अनहोनी बात 'असम्भव अलंकार है। श्याम-जल देख कर रामचन्द्रजी का स्मरण हो आया जिससे आँखों में जल भर आया 'स्मरण अलंकार' है। कहना तो था कि यमुना के किनारे आये, परन्तु वैसा न कह कर 'जमुनहिँ आये कहा, जिसको अर्थ है यमुना में आये । यहाँ लक्षित लक्षणा द्वारा यमुना-तद का अर्थ ग्रहण होता है। दो० रघुबर-बरन बिलोकि बर, बारि समेत समाज । होत मगन बारिधि बिरह, चढ़े बिबेक जहाज़ ॥२२०॥ रघुनाथजी के शरीर के रग का श्रेष्ठ जल देख कर समाज के सहित भरतजी ज्यों ही विरह रूपी समुद्र में डूबने लगे, त्यों ही शान रूपी जहाज पर चढ़े तब रक्षा हुई ॥२२०॥ यमुना जल उपमान को उलट कर उपमेय बनाना 'प्रथा अलंकार है। चौo-जमुन-तीर तेहि दिन करि बासू। भयुउ समय सम सन्नहि सुपासू॥ रातिहि घाट घाट की तरनी। आई अगनित जाहिँ न बरनी॥१॥ उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया, समयनाकूलासभी तरह का सुबीता हुआ। रात ही में घाट घाट की नौकाएँ आई, वे अनगिनती वर्णन नहीं की जा सकती ॥१॥ प्रात पार भये एकहि खेवा । तोर्षे रामसखा की सेवा ॥ चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई ॥२॥ प्रातःकाल एक ही सेवा में पार हो गये, रामचन्द्र जी के मित्र (गुह) की सेवा से भरतजी प्रसश हुए । स्नान कर नदी को सिर नवा निषादराज के साथ दोनों भाई चले ॥२॥ आगे मुनिबर बाहन आछे । राज-समाज जाइ सब पाछे तेहि पाछे दोउ बन्धु पयादे भूषन बसन बेष सुठि सादे ॥३॥ श्रागे मुनिवर की उत्सम सवारी है, पीछे सब राज समाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई भूषण और वस्त्र से अत्यन्त सादे वेश में पैदल चल रहे हैं ॥३॥ सेवक सुहृद सचिव-सुत साथा। सुमिरत लखन-सीय-रघुनाथा ॥ जहँ जहँ राम बास बिस्रामा। तह तह करहिँ सप्रेम प्रनामा ॥४॥ सेवको, मित्रों और मन्त्री-सुवन के साथ लक्ष्मणजी, सीताजी और रघुनाथजी का स्मरण करते हैं। जहाँ जहाँ रामचन्द्रजी ने निवास वा विश्राम किया था,वहाँ वहाँ प्रीति-पूर्वक प्रणाम करते हैं । दो-मग-बासी नर-नारि सुनि, धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह बस, मुदित जनम फल पाइ ॥२२१॥ मार्ग में बसनेवाले स्त्री-पुरुष सुन कर घर का काम त्यांग कर दौड़े। वे सब सुन्दर रूप देख स्नेह के अधीन हो जन्म का फल पा कर प्रसन्न होते हैं ॥२२॥ ।