पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५८१ पाला है । हे सखी! इनकी प्रशंसा में जो कुछ कहा जाय वह थोड़ा ही है, रामचन्द्रजी के भाई ऐसे क्यों न हो?॥१॥ रामचन्द्रजी के भाई है फिर वे ऐसे क्यों न हो? कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। हम सब सानुज भरतहि देखे । मइन्ह धन्य जुबती-जन लेखे । सुनि गुन देखि दसा पछित्ताहीं। कैकइ जननि जोग सुत नाहीं ॥२॥ छोटे भाई शत्रुहन के सहित भरतजी को देख कर हम सब स्त्रियों की गिनती में धन्य हुई हैं । भरतजी के गुण को सुन कर और उनकी दशा देख कर पछताती हैं तथा कहती हैं कि ये फेकयी माता के योग्य पुत्र नहीं हैं ॥२॥ कोउ कह दूषन रानिहि नाहिन । बिधिसब कीन्ह हमाहिँ जो दाहिन। कहँ हम लोक-बेद-विधि हीनी । लघु-तिय कुल-करतूतिमलीनी ॥३॥ कोई कहती है कि रानी का दोष नहीं है, विधाता ने सब किया जो हम लोगों पर अनु. कूल है। कहाँ हम लेोक और वेद की रीति से हीन, तुच्छ स्त्री, कुल तथा करनी से मलिन (नापाक) हैं ॥३॥ केकयो के सच्चे दोष को इसलिये निषेध किया कि उसका धर्म अपने ऊपर ब्रह्मा की अनुकूलता में भारोपित करना अभीष्ट है ! यह 'पर्यस्तापन्हुति अलंकार है। घसहिँ कुदेस कुगाँव कुशामा । कहँ यह दरस पुन्य-परिनामा ॥ अस अनन्द अचरज प्रति-धामा। जनु मुरु-भूमि कलपतरु जामा ॥४॥ दुरे देश और बुरे गाँव में बसनेवाली खोटी स्त्री हैं और कहाँ यह अपूर्व दर्शन बड़े पुण्य का फल है। ऐसा आनन्द और आश्चर्य प्रत्येक गाँव में हो रहा है, ऐसा मालूम होता है मानो मरु देश की धरती पर कल्पवृक्ष जमा हो ॥४॥ कल्पवृक्ष देव लोक के सिवा भूमि पर नहीं होता, तो भी मारवाड़ जैसे निर्मल रेतीले देश में उसका उगना असम्भव है, यह फषि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलं. ! दो०-भरत दरस देखत खुलेउ, मग-लोगन्ह कर भाग । जनु सिंहल-बासिन्ह अयउ, बिधि-बस सुलभ प्रयाग ॥२२॥ भरतजी का रूप देखते ही मार्ग के लोगों का भाग्य खुल गया, ऐसा मालूम होता है मानों लशा-निवासियों को दैवयोग से तीर्थराज प्राप्त हुए हो ॥२२॥ 'दरस और देखत' शब्द पर्यायवाची हैं इससे पुनरुक्ति का आभास है, परन्तु अर्थ भिन्न है, एक रूप का ज्ञापक और दूसरा देखने का चोधक होने से 'पुनरुक्तिवदाभास अलंकार' है। सिंहल द्वीप-निवासियों को दैवयोग से प्रयाग माप्त होते ही हैं। यह 'उक्तविषयां वस्तूत्प्रेक्षा भलंकार है।