पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४३

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५८२ रामचरित मानस । चौ०-निजगुनसहित राम-गुन-गाथा । सुनत जाहिँ सुमिरत रघुनाया। तीरथ मुनि-आस्त्रम सुर-धामा। निरखि निमज्जहिँ करहिं प्रनामा॥१॥ अपने गुणों के सहित रामचन्द्रजी के गुण की कथा सुनते और रघुनाथजी का स्मरण करते चले जाते हैं। तीर्थस्थान, मुनियों के आश्रम और देव मन्दिर जो मार्ग में पड़ते हैं वहाँ स्नान, प्रणाम और दर्शन करते हैं ॥२॥ पहले तीर्थ, मुनिश्राश्रम और फिर देव मन्दिर कहा, इनका क्रम से स्नान, प्रणाम, दर्शन करना कहना चाहता था। क्योंकि तीर्थों में स्नान, मुनियों को प्रणाम, देव मन्दिरों में मूर्ति का दर्शन होता है, परन्तु चौपाई में दर्शन, स्नान, प्रणाम कहा गया है। यह भङ्गक्रम यथासंक्य अलंकार' है। मनही मन माँगहिँ बर एहू । सीय-राम-पद-पदुम सनेहू ॥ मिलहि किरात कोल बन-बासी । बैषानस बदु जती उदासी ॥२॥ मन ही मन यही घर माँगते हैं कि सीताजी श्रार रामचन्द्रजी के चरण-कमला में स्नेह हो । कोल, भील वाणप्रस्थ, ब्रह्मचारी, सन्यासी और विरक्त-पुरुप वन में बसनेवाले जो मिलते हैं ॥२॥ करि प्रनाम पूछहिँ जेहि तेही। केहि बन लखन-राम-बैदेही । ते प्रभु समाचार सम कहहाँ । भरतहि देखि जनम-फल लहहीं ॥३॥ प्रणाम करके जिससे तिससे पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, रामचन्द्रजी और जानकीजी किस धन में हैं ? वे प्रभु रामचन्द्रजी को सब हाल कहते हैं और भरतजी को देख कर जन्म का फल पाते हैं ॥३॥ जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम-लखन-सम लेखे ॥ एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी । सुनत राम-बनबास कहानी ॥४॥ जो मनुष्य कहते हैं कि हमने कुशल से देखा है, उनको . रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी के समान प्रिय समझते हैं। इस तरह सभी से सुन्दर वाणी में रामचन्द्रजी के वन में रहने का वृत्तान्त पूछते और सुनते जाते हैं ॥३॥ दो-तेहि बासर बसि प्रातही, चले सुमिरि रघुनाथ । राम-दरस की लालसा, भरत सरिस सब साथ ॥२२४॥ उस दिन टिक कर सवेरे ही रघुनाथजी का स्मरण कर चले । साथ के सब लोगों को भरतजी के समान ही रामचन्द्रजी के दर्शन की लालसा है ॥२२४॥ चौ-मङ्गल सगुन होहिं सब काहू । फरकहि सुखद बिलाचन- बाहू ॥ भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिँ राम मिटिहि दुख-दाह॥१॥ सब को मङ्गल-सूचक सगुन होते हैं और सुखदायी नेत्र तथा भुजाएँ फड़कती है। समाज के सहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि रामचन्द्रजी मिलेंगे और 'दुःख की ज्वाला मिटेगी॥१॥ .