पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४५

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ताये ॥२॥ . रामचरित-मानस। चौ०-सकल सनेह शिथिल रघुबर के । गये कोस दुइ दिनकर ढरके। जल थल देखि बसे निसि बीते । कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीते ॥१॥ सब लोग रघुनाथजी के स्नेह में शिथिल हैं, दो फोस जाने पर सूर्य अस्त हो गये । अल का ठिकाना देख कर टिक गये, रात बीतने पर रघुनाथजी के प्यारे (भरतजी) ने गमन किया ॥१॥ उहाँ राम रजनी-अवलेखा ! जागे सीय सपन अस देखा। सहित समाज भरत जनु आये । नाथ बियोग ताप वहाँ रानि के अन्त में रामचन्द्रजी जागे, सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा। वे रामचन्द्रजी से कहने लगी: हे नाथ ! समाज के सहित मानो भरतजी श्राये हैं, उनका शरीर विरह की ज्वाला से सन्तप्त है ॥२॥ सकल मलिन मन दोन दुखारी । देखो सासु आन अनुहोरी ॥ सुनि सिय सपन भरे जल लोचन । भये सोच-बस सोच-विमोचन ॥३॥ सब लोगों के मन उदास, दीन और दुखी हैं, सासुओं की दूसरी ही सूरत देखी। सीताजी के स्वप्न को सुन कर नेत्रों में जल भर आये, सोच के छुड़ानेवाले रामचन्द्रजी सोच के अधीन हुए ॥३॥ सोच छुड़ानेवाले का स्वयम् सोच वश होना विरोधो वर्णन 'विरोधाभास अलंकार है। लखन सपल यह नीक न हाई । कठिन कुचाह सुनाइहि कोई । अस कहि बन्धु समेत नहाने । पूजि पुरारि साधु सनमाने ॥४॥ हे लक्ष्मण ! यह स्वप्न अच्छा नहीं है, कोई भयक्षर अनिष्ट की बात सुनाई पड़ेगी। ऐसा कह कर भाई के सहित स्नान किये और शिवजी का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया ॥ हरिगीतिका-छन्द। सनमानि सुर मुनि-कुन्द बैठे, उतर दिसि देखत भये । नम धूरि खग मृग भूरि मागे, भिकल प्रभु आत्रम गये ॥ तुलसी उठे अवलोकि कारन, काह चित सचकित रहे । सब समाचार किरात कालन्हि, आइ तेहि अवसर कहे ॥ देवता और मुनियों का सम्मान कर बैठे, फिर उत्तर दिशा की ओर देखा। आकाश में धूल भर रही है, पक्षी और मृगों के झुंड अत्यन्त घबराहट से भागते हुए प्रभु के आश्रम में गये। तुलसीदासजी कहते हैं कि इस कारण को देख कर रामचन्द्रजी उठे और विचारने लगे कि सब जीव-जन्तु क्यों चकपकाये हैं। उसी समय कोल भीलों ने आकर सब हाल कहे ABH