पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४६

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yey द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सो०-सुनत सुमङ्गल बैन, मन-प्रमोद तन-पुलक-भर । सरद सरोरुह नैन, तुलसी भरे सनेह-जल ॥२२६॥ सुन्दर मङ्गलीक वचन सुनते ही मन में बड़ा आनन्द हुआ और शरीर पुलक से भर गया। तुलसीदासजी कहते हैं कि शरदकाल के कमल के समान नेत्रों में स्नेह से जल भर आये ॥२२॥ चौ-बहुरि सोच बस भे सिय-रवनू । कारन कवन भरत आगवनू । एक आइ अस कहा बहोरी । सेन सङ्ग चतुरङ्ग न थोरी ॥१॥ तब सीतारमण सोच वश हुए भरत के आने का क्या कारण है १ फिर एक ने श्रोकर ऐसा कहा कि साथ में चतुरजिनो सेना थोड़ी नहीं अर्थात् बहुत बड़ी है ॥१॥ सो सुनि रामहि भा अति सोचू । इत पितु बच उत बन्धु सकोचू ॥ भरत सुमाउ समुझि मन माहीं। प्रभु-चित हित-थिति पावत नाहीं॥ वह सुन कर रामचन्द्रजी को बड़ा सोच हुआ, इधर पिता की बात; उधर भाई का सङ्कोच (एक भी त्यागने योग्य नहीं)। भरतजी के स्वभाव को मन में समझ कर प्रभु का चिर कहीं ठहरने योग्य स्थान नहीं पाता है ॥२॥ पिताजी की आशा भङ्ग होने का चिन्ताभाव और भाई भरतजो के सकोच का स्नेहभाव अपनी अपनी ओर खींच रहे हैं। किसे ग्रहण कर और किले त्या कुछ निश्चय नहीं होता है। दोनों भाव सम बली होने से भावसन्धि है। समाधान तब भा यह जाने । भरत कहे महँ साधु सयाने ॥ लखन लखेउ प्रभु हृदय खमारू। कहत समय सम नीति-बिचारू ॥३॥ तब यह जानकर सन्देह दूर हुअा कि भरत मेरे कहने में, सत्पुरुष और चतुर हैं। लक्ष्मणजी ने लखा कि स्वामी के हृदय में खलबली हुई है, वे समय के अनुसार विचार कर नीति कहने लगे ॥३॥ रामचन्द्रजी के हृदय में पूर्वोक दोनों भाव ज्यों ही उदय हुए और वे बढ़ने नहीं पाये कि तबतक मति सञ्चारीभाव प्रबल होकर पूर्वोत्पन्न भावों को शान्त कर दिया। यह 'भावशान्ति है। बिनु पूछे कछु कहउँ गोसाँई । सेवक समय न ढीठ ढिठाई। तुम्ह सर्वज्ञ-सिरोमनि स्वामी । आपनि समुझि कहइ अनुगामो ॥४ ..हे स्वामिन् ! मैं बिना पूछे कुछ कहता हूँ (क्षमा कीजियेगा, क्योंकि) सेवा के योग्य समय पर दिठाई करनेवाला सेवक ढीठ नहीं कहा जाता। हे नाथ ! श्राप ते सर्वज्ञों के शिरोमणि हैं, यह दास अपनी समझ के अनुसार कहता है | ७४