रामचरित-मानस । दोव नाथ सुहृद सुठि सरल-चित्त, सील-सनेह-निधान । सब पर प्रीति प्रतीति जिय, जानिय आपु समान ॥२२७॥ हे नाथ! आप शुद्ध दय, अत्यन्त सीधे चित्तवाले, शील और स्नेह के स्थान हैं। इससे प्रीति और विश्वास सव के ऊपर जी में अपने ही समान समझते हैं ॥२२७॥ चौ०-विषयी जीव पाइ प्रभुताई । मूढ़ माह-वस होहिं जनाई । भरत नीति-रत साधु सुजाना । प्रभु-पद-प्रेम सकल जग जाना॥१॥ परन्तु विषयी प्राणी प्रभुता पाकर अज्ञान वश मूर्खता में जाहिर हो जाते हैं । भरत मोति में तत्पर, सज्जन, चतुर और स्वामी के चरणों के प्रेमी हैं, इसको सारा संसार जानता है ॥१॥ आज राज-पद पाई। चले धरम-मरजाद मिटाई ॥ कुटिल कुबन्धु कुअवसर ताकी। जानि राम बन-बास एकाको ॥२॥ वे भी आज राज्यपद पाकर धर्म की मादा को मिटा कर चले हैं। ये कपटी, दुष्ट भाई, बुरा समय देख कर जाना कि रामचन्द्रजी वन में अकेले निवास करते हैं ॥२॥ करि कुमन्त्र मन साजि समाजू । आये करइ अकंटक राजू । कोटि प्रकार कंलपि कुटिलाई । आये दल बटोरि दाउ माई ॥३॥ खोटा मत मन में करके समाज सज कर अकण्टक राज्य करने आये हैं । करोड़ों प्रकार की कुटिलता की कल्पना करके दोनों भाई दल बटोर कर आये हैं ॥३॥ 'अकंटक' शब्द में व्यंगार्थ यह है कि चौदह वर्ष बाद रामचन्द्र राज्य के दावेदार होंगे, इस काँटे को निर्मूल कर अकंटक राज्य करना चाहिये। जौँ जिय होति न कपट कुचाली । केहि सोहाति रथ-बाजि-गजाली । भरतहि दोष देइ को जाये । जग बौराइ राज-पद पाये ॥१॥ 'यदि मन में कपट और कुचाल न होती तो रथ, घोड़े और हाथियों का झुण्ड किसको सुहाता ? भरत को व्यर्थ ही कौन दोष दे, राज्य-पद पाने से संसार ही पागस हो जाता है ॥२॥ 'जग' जड़ है वह क्या पागल होगा ? जग के लोग कहना चाहिए। वह न कह कर 'जग बौराई' कहा । रुढ़ि लक्षणा द्वारा जगत के मनुष्य का ग्रहण होता है। हाथी, घोड़े, सेना आदि चिह्नों को देख कर भरतजी का युद्धार्थ आगमन लक्ष्मणजी का समझना अनुमान प्रमाण अलंकार है। दो-ससि गुरु-तिय-गामी नहुष, चढ़ेउ भूमिसुर जान । । लोक बेद सँ बिमुख भा, अधम न बेन समान ॥ २२८ ॥ चन्द्रमा ने गुरु-पत्नी से गमन किया, नईष बाह्मणों को कहार बना कर पालकी पर चढ़े। बेन के समान अधम और लोक-घेद से विमुख कोई नहीं हुआ ॥२२॥