पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४८

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द्वितीय सेपिान, अयोध्याकाण्ड । ५८७ चन्द्रमा के गुरु वृहस्पति हैं और बृहस्पति की स्त्री का नाम तारा है। एक बार त्रिलोक विजय करके चन्द्रमा राजसूययज्ञ करने लगे, उसमें सपत्नीक गुरु को निमन्त्रित किया और गुरु-पत्नी को सुन्दरता पर मोहित होकर उनके साथ व्यभिचार किया। बृहस्पति ने इन्द्र से पुकार मचायी, इन्द्र ने चन्द्रमा से कहा कि गुरु-पत्नी को लौटा दो । जब चन्द्रमा ने नहीं माना तब घोर युद्ध हुआ, राक्षले ने चन्द्रमा का साथ दिया । अन्त में ब्रह्मा ने बीच में पड़ कर तारा बृहस्पति को दिलवा दी और उससे उत्पन्न पुत्र (बुध) को चन्द्रमा ने लिया, तब कलह शान्त हुआ। यह केवल राजमद हा का कारण है। राजा नहुष का वृत्तान्त इसी काण्ड में ६१ वे दोहा के नीचे की टिप्पणी देखिये । राजा बेन बड़ा उपद्रवी. बाचाल और दुष्ट प्रकृति था। इसने राज्य पाकर घोर उत्पात मचाया । सब कम धम रोक कर ब्राह्मणों से कहा कि मेरी पूजा करो ईश्वर दूसरा कौन है ? पहले ब्राह्मणों ने समझाया, न मानने पर शाप देकर भस्म कर दिया। चौ०-सहसबाहु सुरनाथ त्रिसङ्घ । केहि न राजमद दीन्ह कलङ्क ॥ भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ । रिपु रिन रञ्च न राखब काऊ ॥१॥ सहस्रबाहु, इन्द्र और त्रिशङ्ख किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया। भरत ने यह उचित उपाय किया कि शत्रु रूपी ऋण का शेष कभी थोड़ा भी न रखे ॥१॥ भरतजी की प्रशंसा करने पर भी निन्दा प्रगट होना 'व्याजनिन्दा अलंकार' है। सहस्त्रबाहु का वृत्तान्त बालकाण्ड में २७० दोहा के आगे दूसरी चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखो। इन्द्र एक बार राज्यासन पर विराजमान थे, गुरुजी आये पर मदान्धता के कारण प्रणाम नहीं किया। वृहस्पतिजी अप्रसन्न होकर चले गये। इन्द्र पर इस महापाप के कारण विपत्ति आई । दैत्यों से लड़ कर पराजित हुए। ब्रह्मा के आदेश से बहुत प्रयत्न करने पर तब रक्षा हुई । राजा त्रिशङ्कुने-मदोन्मत्त हो सशरीर स्वर्ग जाना चाहा । गुरु वशिष्ठ का तिरस्कार कर विश्वामिन्न को गुरु बनाया। उन्हों ने सदेह स्वर्ग भेजा, पर स्वर्ग-वासियों ने धक्का देकर नीचे ढकेला, विस्वामित्र ने अपने तपोबल से बीच ही में रोक दिया। वह न इधर का हुआ न उधर का, आकाश में टंगा है। एक कीन्हि नहिं अरत भलाई। निदरे राम जानि असहाई । समुझि परिहि सोउ आजु बिसेखी । समर सरोष राम-मुख पेखी ॥२॥ भरत ने एक ही मात अच्छी नहीं की कि रामचन्द्रजी को असहाय समझ कर अनादर किया। वह भी आज उन्हें खूब समझ पड़ेगा जब संग्राम में रामचन्द्रजी का क्रोध-पूर्ण मुख देखेंगे ॥२॥ एतना कहत नीति-रस भूला । रन-रस-बिटप पुलंक मिस फूला ॥ प्रभु-पद बन्दि सीस रज राखी । बोले सत्य सहज बल भाखी ॥३॥ इतना कहते नीति रस-भूल गया, युद्ध-रस रूपी वृक्ष पुलक के बहाने फूल आया । प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में प्रणाम कर उनकी धूल मस्तक पर चढ़ा अपना सच्चा स्वभाविक खल कहते हुए बोले ॥