पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४९

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रामचरित-मानस । नीति की बात कहते हुए लक्ष्मणजी के हदय में समयानुकूल वीररस का उदय हो आवा.. इसको बहाने से और का और कहना कि युद्ध-रस रूपी वृक्ष रोमाञ्चित होने के बहाने फूल'. आया 'कैतधापहृति अलंकार' है।। अनुचित नाथ न मानब मारा । भरत हमहि उपचार न थोरा। कह लगि सहिय रहिय मन मारे । नाथ साथ धनु हाथ हमारे ॥४॥ हे नाथ ! मेरा कहना अनुचित न मानिये, भरत से हमारे पास कम साधन नहीं है। कहाँ तक सहूँ और मन को दबाये रहूँ, मैं भी स्वामी के साथ में है तथा मेरे हाथ में भी धनुष है ॥ दो०-छत्रि-जाति रघुकुल-जनम, राम-अनुज जग जान । लातहु मारे चढ़ति सिर, नीच को धूरि समान ॥२२॥ क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म, रामचन्द्रजी का छोटा भाई संसार जानता है । धूल के समान नीच कौन है ? वह भी लात के मारने से सिर पर चढ़ती है ॥२२॥ दूसरे का बल प्रयोग अत्याचार न सहने के लिए एक क्षत्रिय जाति ही प्राप्त कारण है, तिस पर रघुकुल में जन्म, राम-बन्धु, स्वामी का साथ और धनुप हाथ में रहना अन्य प्रबल हेतुओं की उपस्थिति 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है । चौ०-उठि कर जोरि रजायसु माँगा । मनहुँ बीररस सेवित जागा ॥ बाँधिजदासिरकसिकटिभाथा । साजि सरासन-सायक हाथा ॥१॥ उठ कर हाथ जोड़ आज्ञा माँगी, ऐसा मालूम होता है मानो वीररस सेति से जाग पड़ा हो । सिर पर जटा बाँध और कमर में तरकस कस कर हाथ में धनुष बाण संज.. कर-चोले ॥२॥ वीररस कोई शरीरधारी योधा नहीं जो सोते से जाग उठा हो, वह तो वीरों के मन का विकार मात्र 'अनुक्कविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार है। आजु राम-सेवक जस, लेऊँ । भरतहि समर सिखावन देॐ॥ राम निरादर · कर फल पाई । सेविहु समर-सेज दोउ भाई ॥२॥ आज मैं रामचन्द्रजीको सेवक होने का यश लूँगा, भरत को युद्ध की शिक्षा दूंगा! रामचन्द्रजी के अनादर का फल पाकर दोनों भाई समर शय्या पर सावंगे ॥२॥ आइ बना भल सकल समाजू । प्रगट करउँ. रिस पाछिल आज । जिमि करि निकर दलइ मृगराजू । लेइ लपेटि लवो जिमि बाजू ॥३॥ सब सामान आकर अच्छा बन गया है, पिछला क्रोध आज मैं प्रकट कगा। जिस तरह हाथी के मुण्डाका सिंह विनाश करता है और जैसे बटेर को बाज़ लपेट लेता है ॥ पिछला क्रोध जो केकयी की क्रूरता पर अयोध्या में आया और उसे मसोस कर सड़ लेना पड़ा, उस समय कुछ कर नहीं सके थे।