पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५१

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रामचरित मानस । दो०-भरतहि होइन राजमद, विधि हरि हर पद पाइ। कबहुँ कि काँजी सोकरनि, छोर-सिन्धु बिनसाइ ॥२३१॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पद पा कर भी भरत को राजमद न होगा । क्या कभी कॉजी के अल्प-विन्दुओं से क्षीरसागर बिगड़ (जम) सकता है ? (कदापि नहीं),॥२३॥' पूर्वार्द्ध उपमेय वाक्य है और उत्तरार्द्ध चनोति द्वारा उपमान वाक्य है। दोनों वाक्यों में बिना वाचक पद के विम्ब प्रतिविम्ब भाव झलकना 'दृष्टान्त अलंकार' है। कॉजी कई प्रकार से बनाई जाती है, वह एक प्रकार का खट्टा पानी है। चौ०-तिमिरतरुनतरनिहिमकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई । गो-पद जल बूढहिँ घटानी । सहज छमा बरु छाड़इ छोनी॥१॥ चाहै मध्याह्न के सूर्य को अन्धकार निगल जाय, चाहै आकाश में बादलों को रास्तान मिले । (समुद्र को सुखा देनेवाले) अगस्त्यमुनि चाहै गौ के बुर बराबर जल में इस जाय, स्वाभाविक क्षमाशील पृथ्वी चाहै क्षमा को छोड़ दे ॥३॥ 'गगन मग न मकु मेघहि मिलई' अधिकांश अर्थका 'मान' को एक शुभ मान कर यह अर्थ करते हैं कि-"श्राफकाश चाहे बादलों में मिल जाय। राजापुर की प्रति में शब्दों का अलगाव नहीं है 'मगन' और 'मग न' मानना पाठको की इच्छा पर निर्भर है। परन्तु यदि । कविजी को ऐसा कहना होता तो विशेषता यह थी कि लघु तारा में आकाश का मिलना कहते। यहाँ तो उनके कहने का तात्पर्य यही प्रतीत होता है कि चाहे इतने बड़े अनन्त भाकाश में मेधों को चलने का रास्ता न मिले। मसक फॅक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृप-मद भरतहि भाई ॥ लखन तुम्हार सपथ पितु आना । सुचि सुबन्धु नहिँ मरत समाना ॥२॥ चाहै मसा के फूक से सुमेरु-पर्वत उड़ जाय, पर हे भाई ! भरत को राजमद नहीं हो सकता। हे लक्ष्मण ! मैं तुम्हारी शपथ और पिता की सौगन्द करके कहता हूँ कि भरत के समान सुन्दर पवित्र भाई नहीं है ॥२॥ सगुन-छोर अवगुन-जल ताता । मिलइ रचइ परपञ्च विधाता । भरत हंस रबि-बंस-तड़ागा । जनमि कीन्ह गुन-दोष-विभागा ॥३॥ हे तात ! सुन्दर गुण रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को संसार में मिला हुआ विधा- ता ने रचा। सूर्यकुल रूपी सरोवर में हंस रूपी भरत ने जन्म ले कर गुण और दोष को अलग अलग कर दिया ॥३॥ प्रस्तुत वृत्तान्त को सीधे न कहने में व्यज्ञार्थ द्वारा ललित अलंकार है कि केकयी के उदर से भरत उत्पन्न हैं जिसमें दुर्गुण रूपी जल भरा है, पर उन्हाने दुर्गुणों को त्याग कर गुण सपी दुध ही प्रहण किया। 4