पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५२

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५६१ गहि गुन-पय तजि अवगुन-बारी । निज जस जगत कीन्हि उँजियारी॥ कहत भरत गुन-सील-सुभाऊ । प्रेम-पयोधि मगन रघुराज ॥ ४ ॥ गुण रूपी दूध को ग्रहण कर अवगुण रूपी जल को त्याग दिया, अपने यश से जगत में उजेला किया। भरतजी का गुण, शील और स्वभाव कहते हुए रघुनाथजी प्रेम के सागर में डूब गये ॥४॥ दो०-सुनि रघुबर-बानी बिबुध, देखि भरत पर हेतु । सकल सराहत राम साँ, प्रभु को कृपानिकेतु ॥ २३२ ॥ रघुनाथजी की वाणी सुन कर और भरतजी पर उनका स्नेह देख कर सम्पूर्ण देवता सराहते हैं कि रामचन्द्रजी के समान दयानिधान खामी कौन है ? ॥२३२॥ चौ०-जाँ नहोत जग जनम भरत को । सकल धरम-धुर-धरनिधरत को । कबि-कुल-अगम भरत-गुनगाथा । को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ॥१॥ यदि संसार में भरतजी का जन्म न होता तो सम्पूर्ण धर्म के मार को धरती पर कौन धारण करता ? भरतजी के गुणों की कथा कहने में कविकुल के लिये दुर्गम है, हे रघनाथजी ! आप के बिना उसको दूसरा कौन जान सकता है ? ( कोई नहीं ) ॥१॥ लखन-राम-सिय सुनि सुर-बानी। अति सुख लहेउ न जाइ बखानी॥ इहाँ भरत सब सहित सहाये । मन्दाकिनी पुनीत नहाये ॥२॥ देवताओं की वाणी सुन कर लक्ष्मणजी, रामचन्द्रजी और सीताजी अत्यन्त सुखी हुए, जो कहा नहीं जा सकता । यहाँ सब समाज के सहित भरतजी पवित्र मन्दाकिनी गंगा में स्नान किये ॥ सरित समीप राखि सब लोगा। माँगि मातु गुरु सचिव नियोगा। चले भरत जहँ सिय-रघुराई । साथं निषादनाथ लघु भाई ॥३॥ सब लोगों को नदी के समीप ठहरा कर माता, गुरू और मन्त्रियों से आशा मांग जहाँ सीताजी और रघुनाथजी हैं, साथ में निषादराज तथा छोटे भाई शत्रुहन के सहित भरतजी चले ॥३॥ समुझि मातु करतब सकुचाहीं । करत कुतरक कोटि मन माहीं ॥ राम-लखन-सिय सुनि ममनाऊँ । उठि जनि अनत जाहिँ तजि ठाऊँ ॥४॥ माता की करनी समझ कर सकुचाते हैं और करोड़ों कुतर्क मन में करते हैं । सोचते हैं कि मेरा नाम सुन कर रामचन्द्रजी लक्ष्मणजी और सीताजी वह स्थान त्याग कहीं दूसरी जगह उठ कर न चले जाँय nen