पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । १५ मति अति नीच ऊँचि रुचि छी । चहिय अमिय जग जुरइ न छाछी ।। छमिहहि सज्जन . मोरि ढिठाई । सुनिहहिँ बाल बचन मन लाई ॥४॥ धुद्धि तो अत्यन्त नीच है, पर अभिलाषा बड़ी ऊँची है, अमृत की चाह है, किन्तु संसार में माता भी नहीं जुरता है । सज्जन लोग मेरी इस ढिठाई को क्षमा करेंगे और इस बालक की पात मन लगा कर सुनेंगे। जौं बालक कह तोतरि बातो । सुनहिँ मुदित मन पितु अरु माता ॥ हँसिहहिँ कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर-दूषन भूषन-धारी ॥५॥ यदि बालक तुतला कर बात कहता है तो उसको माता और पिता प्रसन्न मन से सुनते हैं। निर्दय, कपटी, बुरे विचारवाले, जो दूसरों के दोषों का ही आभूषण धारण करते हैं वे हँसेंगे॥५॥ सज्जन असज्जन के लक्षण द्वारा अनुमान बल से यह निश्चय कर लेना कि सज्जन माता-पिता की तरह प्रेम से सुनेंगे और दुष्ट प्राणी इस काव्य की हँसी करेंगे 'अनुमान- प्रमाण अलंकार है। निज कचित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ. अथवा अति फीका । जे पर-भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुस जग नाही ॥६॥ अपनी बनाई कविता किसको अच्छी नहीं लगती? चाहे वह रसीली हो अथवा अत्यन्त नीरस हो। जो दुसरे का काव्य सुन कर प्रसन्न होते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष संसार में बहुत नहीं हैं ॥६॥ जग बहु नर सरि सर सम भाई। जे निज बाढि बढ़हि जल पाई। सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़ जाई ॥७॥ भाई ! जगत् में बहुत से मनुष्य नदी और तालाब के समान हैं, जो जल.पा कर अपनी बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात् अपनी उन्नति से खुश होते हैं । पर समुद्र के समान सजन कोई एक आध ही हैं जो पूर्ण चन्द्रमा (पराये की वृद्धि ) देख कर उमड़ते हैं ॥७॥ दो०-भाग छोट अभिलाष बड़, करउँ एक बिस्वास । पइहहिं सुख सुनि सुजन जन, खल करिहहिँ उपहास ॥८॥ 'अभिलाषा बड़ी है भाग्य छोटा है, मैं एक ही विश्वास करता हूँ कि सजन लोग इस कविता को सुन कर सुख पावेगे और दुष्ट लोग निन्दा करेंगे ॥८॥ चौ०-खल परिहास हाइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥ हंसहि बक दादुर चातकही।हँसहि मलिन खल बिमल बतकही ॥१॥ दुष्टो के बुराई करने से मेरी भलाई होगी, कौए कोयल को फठोर (वाणीवाली ) कहते हैं। बगुला हंस की और मेढक पपीहा की हँसी करते हैं, उसी तरह दुष्ट पापी निर्मल वार्ता (हरिकथा) का मजाक उड़ाते हैं ॥१॥