पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६०

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॥ अच्छा . $ द्वितीय सेापान, अयोध्याकाण्ड । अगम सनेह भरत रघुबर को । जहँ न जाइ मन विधि-हरि-हर को सो मैं कुमति कहउँ केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥ ३ ॥ भरतजी और रघुनाथजी का परस्पर स्नेह अगम है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश का मन नहीं पहुँचता । उसको मैं कुबुद्वि किस तरह कह सकता हूँ, क्या भेड़ को ताँत से राग वज सकताहै ? (कभी नहीं) ॥३॥ उपमेय रूपी पृथम वाक्य में वर्णनकी अशका कही गई है और उपमानरूपी उत्तरार्द्ध वाक्य में काकु से उदाहरण द्वारा अशक्तता प्रगट है । यह 'प्रतिषस्तूपमा अलंकार' है। गाँडर शन्द भेड़ और खस दोनों का पर्यायवाची है। मिलनि बिलोकि भरत रचुगर की। सुर-गन सभय धकधकी घर की ॥ समुझाये सुरगुरु जड़ जागे । बरसि प्रसून प्रसंसन लागे ॥en भरतजी और रघुनाथजी का मिलना देख कर देवताओं की डर से छाती धड़कने लगी। देवगुरु (बृहस्पति) ने समझाया, तब वे नासमझी से सावधान हुए और फूलों की वर्षा करके प्रशंसा करने लगे ॥४॥ दो०-मिलि सप्रेम रिपुसूदनहिँ, केवट मैंटेउ राम । भूरि माय भैंटे भरत, लछिमन करत प्रनाम ॥२११॥ रामचन्द्रजी प्रेम के साथ शत्रुहन से मिलकर केवट से मिले। लक्ष्मणजी को प्रणाम करते देख कर भरतजी बड़े प्रेम से उनसे मिले ॥२४॥ चौ०-मैंटेउ लखन ललकि लघु भाई । बहुरि निषाद लोन्ह उर लाई ॥ पुनि मुनि-गन दुहुँ भाइन्ह बन्दे । अभिमत आसिष पाइ अनन्दे ॥१॥ लक्ष्मणजी अत्यन्त चाह से छोटे भाई शत्रुहनजी से मिले, फिर निषाद को हृदय से लगा लिया । तब दोनों भाई (भरत-शत्रुहन) मुनि-मण्डली को प्रणाम किया और वाञ्छित आशीर्वाद पा कर प्रसन्न हुए ॥१॥ सानुज भरत उमगि अनुरागा । सिर धरि सिय-पद-पदुम-परागा । पुनि पुनि करत प्रनाम उठाये। सिर कर-कमल परसि बैठाये ॥२॥ छोटे भाई के सहित भरतजी प्रेम में उमड़ कर सीताजी के चरण रूपी कमलों की धूलि को माथे पर चढ़ाया । बार बार प्रणाम करते हुए उन्हें सीताजी ने उठाया और सिर पर अपने कर-कमलों को फेर कर बैठाया ॥२॥ सीय असीस दोन्हि मन माहीं। मगन सनेह देह सुधि नाहीं॥ सानुकूल लखि सीता । थे निसाच उर अपडर बीता ॥३॥ सीताजी ने मन में आशीर्वाद दिया, (प्रत्यक्ष बोल न सकी, क्योंकि वे) स्नेह में मग्न हैं, उन्हें शरीर की सुध नहीं है । सब प्रकार सीताजी को प्रसन्न देख कर भरतजी सोच से रहित हो गये, उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा ॥३॥ सब विधि