पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । फूल बरसाते हैं। कहते हैं कि इसके समान निरात नीच कोई नहीं और पशिष्ठजी के बराबर संसार में बड़ा कौन है ? (जो रामचन्द्रजी के गुरु हैं ) ॥४॥ दो-जेहि लखि लखनहुँ से अधिक, मिले मुदित मुनिराउ । सो सीतापति भजन को, प्रगट प्रताप प्रभाउ ॥२४॥ जिसको देख कर मुनिराज लक्मणजी से बढ़ कर प्रसन्नता के साथ मिले । वह सीता- नाथ के भजन की महिमा का प्रताप प्रत्यक्ष है ॥ २४३ ॥ पहिले विशेष बात कह कर फिर सामान्य उदाहरण ले उसको हद करना कि यह लीता. नाथ के भजन का प्रभाव है 'श्रर्थान्तरन्यास अलंकार' है। चौ०-आरत लोग राम सब जाना । करुनाकर सुजान भगवाना ।। जो जेहि माय रहा अभिलाखी। तेहि तेहि कै तसि तलि रुख राखी॥१॥ दया की बाग, चतुर भगवान रामचन्द्रजी ने सब लोगों को दुःखी जाना । जो जिस भाव से मिलने के अभिलाषी थे, उनकी उनकी वैली वैसी इच्छा पूरी की ॥१॥ सानुज मिलि पल मह सब काहू । कीन्हि दूरि दुख -दारुन-दाहू ।। यह बडि बात राम के नाही । जिमि घट-कोटि एक रबि छाहीं ॥२॥ छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित पल भर में सब किसी से मिल कर भीषण दुःख की ज्वाला दूर की । रामचन्द्रजी के लिये यह बड़ी बात नहीं है, जैसे करोड़ों (जल से भरे ) धड़े में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब सप में दिखाई देता है ॥२॥ एक रामचन्द्रजी कोलव अयोध्यावासियों से साथ ही मिलना अर्थात् युक्ति से अनेक स्थल में वर्णन करना 'तृतीय विशेष अलंकार है। मिलि केवटहि उमगि अनुरागा । पुरजन सकल सराहहिँ सागा ॥ देखो राम दुखित महुँतारी। जनु सुबेलि-अवली हिम मारी ॥३॥ सम्पूर्ण पुर के लोग प्रेम में उमड़ कर केवट से मिल कर अपने भाग्य की बड़ाई करते हैं। रामचन्द्रजी ने माताओं को दुखी देखा, वे ऐसी मालूम होती हैं मानों सुन्दर लता-पंक्ति को पाले ने मार दिया हो।॥३॥ प्रथम राम #टी कैकेई । सरल सुमाय भगति मत्ति भैई । पग परि कीन्ह प्रबोध बहोरी।काल करमबिधि सिर धरि खोरी ॥४॥ सीधे स्वभाव और भक्तिरसपूर्ण बुद्धि से पहले रामचन्द्रजी केकरी से मिले। पाँव पड़ कर फिर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष रखकर समझाया ॥४॥ दो०-भैंटी रघुबर मातु सब, करि प्रबोध परितोष । अम्ब ईस आधीन जग, काहु न देय दोष ॥२४४॥ रघुनाथजी सब माताओं से मिले और उन्हें समझा बुझा कर सन्तुष्ट किया कि-हे माता! जगत ईश्वर के आधीन है, किसी को दोष न देना चाहिये ॥२४॥ ५६