पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६६६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६०५ दो०-भार भये रघुनन्दनहि, जो मुनि आयसु दोन्ह । सदा भगति समेत प्रभु, सो सब सादर कीन्ह ॥ २४७ ।। सवेरा होने पर मुनि ने जो माता रघुनाथजी को दी, वह सब आदर-पूर्वक श्रद्धा और भक्ति के सहित प्रभु रामचन्द्रजी ने किया ॥२७॥ चौo-करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी । भे पुनीत पातक-तम-तरनी। जासु नाम-पानक अघ-तूला । सुमित सकल सुमङ्गल-मूला ॥१॥ जैसी वेद ने वर्णन की है, पाप रूपी अन्धकार के सूर्य रामचन्द्रजी तदनुसार पिता की अन्तेष्टिक्रिया करके शुद्ध हुए। जिनका नाम पाप रूपी रूई को भस्म करने के लिये अग्नि रूप है और जिसका सुमिरन सम्पूर्ण श्रेष्ठ मसलों का मूल है ॥१॥ सुद्ध सो भयउ साधु-सम्मत अस । तीरथ आवाहन सुरसरि जल ॥ सुद्ध भये दुइ बासर बीते । बाले गुरु सन राम पिरीते ॥२॥ वे शुद्ध हुए, ऐसी सज्जनों को सम्मति है कि जैले गङ्गाजी में तीथों का आवाहन किया जाता है अर्थात् जहाँ सब तीर्थमयी गङ्गाजी वर्तमान है फिर वहाँ अन्य तीर्थों के बुलाने की कौन सी आवश्यकता है? पर नहीं, साधुमत से बैला किया जाता है । उसी प्रकार रघु. नाथजी के लिये शुद्ध होना कहा गया है। शुद्ध हुए दो दिन बीत गये, तब गुरुजी से प्रीति- पूर्वक रामचन्द्रजी बोले ॥२॥ नाथ लोग सब निपट दुखारी । कन्द मूल फल अम्बु अहारी ॥ सानुज भरत सचिव सब माता देखि मोहि पल जिमि जुग जाता ॥३॥ हे नाथ ! सब लोग कन्द, मूल, फल और जल का श्राहार कर निरे दुखी हैं; छोटे भाई शत्रुहन के सहित भरत, मन्त्री और सब माताओं को देख कर मुझे पल युग जैसा बीत सब समेत पुर धारिय पाज । आपु इहाँ अमरावति राज ॥ बहुत कहेउँ सब कियेउँ ढिठाई । उचित होइ तस करिय गोसाँई ॥४॥ सब के सहित अयोध्यापुरी को पधारिये, भाप यहाँ हैं और गजा इन्द्रलोक में गये (राजधानी सूनी पड़ी है)। मैं ने बहुत कहा सब ढिठाई किया, स्वामिन् ! जो उचित हो चैसा कीजिये दो०-धरम-सेतु करुनायतन, कल न कहहु अस रोम । लोग दुखित दिन दुइ दरस, देखि लहहुँ बिस्लाम ॥ २४८ ॥ गुरुजी ने कहा ! हे रामचन्द्रशी ! आप ऐसा क्यों न कहै । क्योंकि आप धर्म के रक्षक और दया के स्थान हैं । लोग दुखी हैं, परन्तु दो दिन से आप के रूप को देख कर चैन पा रहा हूँ अर्थात् हम लोगों को आप के दर्शन हो से भाराम मिलता है ॥२४॥