पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७

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रामचरित-मानस । खरों द्वारा होनेवाले निन्दासपी दोष को अपने लिए गुण मान कर उसकी इच्छा करना 'ऋतुझा अचार' है। दुष्ट पापात्मा विमल-वार्ता की हँसी उड़ाते हैं, यह उपमेय वाक्ष्य है। सौधा कोकिल के कोर कहता है, यगुले हंस की दिलगी करते और मेहक चातक को मूर्ख समझ कर हँसता है, यह उपमान वाश्य है। दोनो वाश्यों में विम्य प्रतिविम्य माय मालकना 'धान्त अलंकार है। गुटका में 'हंसहि व गादुर चातकही पाठ है । यहाँ 'दादुर' के स्थान में 'गादुर' बनाया हुना पाउ मालूम होता है । शायद् उपमा-उपमेय के जातिवर्ग की समानता के लिए ऐसा किया गया है। इधर गेदुरा पक्षी तो उधर चातक पक्षो। पर यह मेल है। प्रसङ्गानुसार मेढक चातक की लमता यथार्थ प्रतीत होती है, क्योंकि वे दोनों मेघ से प्रेम रखने वाले और वर्षा के आकांक्षी होते हैं। उनमें अन्तर यह है कि मेढक जल मात्र में बिहार करता हुश्रा सभी वादलों से प्रेम रखता है। किन्तु पपीहा स्वाती के वादल और जल से प्रसन्न होता है। मेढक इस लिए चातक की हँसी उड़ाता है कि मेरे समान सर जलों में यह विहार नहीं करता,स्वाती के पीछे टेक पकड़ कर नाहक प्राण गँवाता है। यह दृष्टान्त का भाव है, पर इस गम्भीरता को 'गादुर नहीं पहुँच सकता। श्रतएव 'दादुर' पाठ शुद्ध है। कबित रसिक न राम-पद-नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हासरस एहू ॥ भाषा अनिति भोरि मति मेरी। हँसिने जोग हँसे नहिं खोरी ॥२॥ ' जो न तो काव्यरस के प्रेमी है और न राचन्द्रजी के चरणों के अनुरागी हैं, उनको यह कविता हँसी की चीज़ हो कर अानन्द देनेवाली होगी। एक तो भाषा की कहनूति, दूसरे मेरो बुद्धि भोली है, हँसने योग्य है, इस लिए हंसना कोई ऐव नहीं है ॥२॥ प्रभु-पद-प्रीति न साभुझि नीको। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहि फोकी हरि-हर-पद-रति मतिनकुतरकी। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की १३॥ जिन्है न रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति है और न अच्छी समझ है, उन्हें यह कथा सुन कर फोकी लगेगी। पर जिनकी बुद्धि कुतर्कना रहित हरि-हर-रणों में प्रीति रखती है, उनका . रघुनाथजी की कथा मीठी लगेगी ॥३॥ रामगति-भूषित जिय जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥ कधि न होउँ नहिँ चतुर प्रवीनू । सकल कला सब विमा-हीनू ॥ १ ॥ सज्जन लोग इसको रामभक्ति से विभूपित जी में जान कर सुनेगे और सुन्दर वाणी से सराहना करेंगे। न तो मैं कवि हूँ, और न चतुर हूँ, न विज्ञ हूँ, समस्त हुनरों तथा सम्पूर्ण विद्याओं से खाली हूँ ॥४॥ तुलसीदासजी का कवि, चतुर, प्रवीण आदि अपने प्रसिद्ध गुणों का निषेध करना 'प्रतिषध अलंकार' है।