पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७०

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौ०-पुरजन नारि लगन अति भीती। बासर जाहिँ पलक सम बीती॥ सीय सासु प्रति बेष बनाई । सादर करइ सरित सेवकाई ॥१॥ नगर के पुरुष और स्त्री अत्यन्त प्रीति में मग्न हैं, उनके दिन पलक के समान बीतते हैं सीताजी प्रत्येक सासुओं के प्रति रूप बना कर चादर के साथ सब की बराबर सेवा करती हैं ॥१॥ सीताजी एक ही हैं, उन्हें प्रत्येक सामुनों की सेवा करने में साथ ही समान रूप से वर्णन करना 'तृतीय विशेष अलंकार' है। लखा न लरम राम बिनु काहूँ । माया सा सिय-माया माहूँ॥ सीय सासु सेवा बस कोन्ही । तिन्ह लहि सुख सिख आसिष दीन्ही॥२॥ रामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को किसी ने नहीं लखा, कैसे लख पाते ? सारी माया सीताजी की माया के अन्तर्गत है (जिसको वे छिपाना चाहती हैं फिर उसको कोई कैसे जान सकता है ?) सीताजी ने सासुत्रों को सेवा से वश में कर लिया, उन्होंने सुखी होकर शिक्षा और आशीर्वाद दिया ॥२॥ लखि सिय सहित सरल दोउ भाई । कुटिल रानि पछितानि अधाई। अवनि जलहि जाँचति कैकेई । महिन बीच बिधि मीच न देई ॥३॥ सीताजी के सहित दोनों भाइयों के निष्कपट व्यवहार को देख कर कुटिलचुनि रानी केकयो पछतावे से श्रघा गई । केकयी पृथ्वी और यमराज ले याचना करती है कि हे धरती माता! तू बीच क्यों नहीं देती अर्थात् फट जा तो मैं समाजाऊँ और हे कृतान्त ! तुम मुझे मृत्यु का विधान क्यों नहीं देते (जिससे प्राण शीश ही शरीर को त्याग दें) १३॥ पहले पृथ्वी और यम का नाम लेकर फिर उली ममसे बीच और मील की याचना करना अर्थात् धरती वीच क्यों नहीं देती मैं उसमें समा जाऊँ और यमराज मृत्यु की व्यवस्था क्यों नहीं करते जिससे मृतक हो जाऊँ यथालख्य अलंकार' है। यहाँ विधि शब्द का विधाता अर्थ करना ठीक नहीं, क्योंकि केकयी का माँगना पृथ्वी ओर यम से है न कि विधाता से। लोकहु बेद बिदित कभि कहहीं। राम-बिमुख थल नरक न लहहीं । यह संसउ सब के मन माहीं। राम गवन विधि अवध कि नाहीnen लोक तथा वेद में प्रसिद्ध है और कवि लोग कहते हैं कि राम विमुखी प्राणी नरक में भी ठिकाना नहीं पाते (इस सरह केकई मन मै पछताती है)। सब (आयोध्या-वासियों) के मन में यह सन्देह है कि-या विधाता रामचन्द्रजी आयोध्या को चलेंगे या नहीं 11 कोई एक बात का निश्चय न होना सन्देह अलंकार' है। ।