पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७३

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है ॥४॥ रामचरितमानस ६१२ नीति प्रीति परमारथा सवारणकाउन राम सम जान जथारथ ॥ विधि हरि हर ससि रबि दिलिपाला । माया जीव करम कुलि काला ॥३॥ नीति (उचित व्यवहार) प्रीति (परस्पर का प्रेम) परमार्थ (श्रेष्ठ निमित्त) और स्वार्थ (अपना प्रयोजन ) रामचन्द्र के समान कोई भी यथार्थ नहीं जानता । ब्रह्मा, विष्णु, महेश, चन्द्रमा, सूर्य, दिकपाल, मापा, जीव, सम्पूर्ण कम और काल ॥२॥ अहिप अहिए जह लगि प्रभुताई । जोग-सिद्धि निगमागम गाई ॥ करि बिचार जिय देखह नीके । राम रजाइ सीस सबही के॥१॥ शेप, राजा आदि जहाँ तक प्रभुता (घड़ाई) है, योग की सिद्धि जिसको वेद शास्त्रों ने शुराई है । अपने मन में अच्छी तरह विचार कर देखिये रामचन्द्र की यात्रा सब के सिर पर यहाँ यह व्यजित होना कि रामचन्द्रजी सब के एकमात्र प्रेरक हैं, उन्हें कौन आशा दे सकता है ? उनकी आशा सभी को मान्य है । तुल्यप्रधान गुणीभूत व्या है। दो-राखे राम-रजाइ रुख, हम सब कर हित होइ। समुझि सयाने करहु अब, सब मिलि सम्मत सोइ ॥२४॥ रामचन्द्र की श्राशा का रुज रखने ही से हम सब का कल्याण होगा। यह समझ कर अब सब सथाने मिल कर सलाह करो तो बही की जाय ॥२५॥ चौ०-सब कह सुखद राम-अभिषेकू । मङ्गल-मोद-मूल भग एकू॥ केहि बिधि अवध चालहि रघुराज । कहहु समुझिसोइ करिय उपाऊ॥१॥ रामचन्द्र का राज्याभिषेक होना सब को सुखदायी है, एक यही मोर्ग मङ्गल और मान. न्द का मूल है । रघुनाथजी किस प्रकार अयोध्या को लौट चलेंगे ? समझ कर कहिये तो मैं वही उपाय करूँ ॥१॥ सब सादर खुनि मुनिबर बानी। नय-परमारथ-स्वारथ सानी। उत्तर न आव लोग ये भोरे । तब सिर नाइ भरत कर जोरे. ॥२॥ लव ने सुनिवर की वाणी श्रादर से सुनी, जो नीति, परमार्थ और स्वार्थ से मिली हुई है। लोग भोले (हक्केबके) हो गये, कुछ उत्तर नहीं पाता है, तब सिरनवा कर और हाथ जोड़ कर भरतजी बोले ॥२॥ नीति-धर्मधुरीण हैं उन पर उलटो बाम लादना ठीक नहीं। परमार्थ जगत के कल्याण. कारी हैं अकेले हमारे ही नहीं । स्वार्थ लौटना, राजतिलकं होना आनन्द का मूल है । भानु-बंस भये भूप' घनेरे । अधिक एक तें एक बड़ेरे ॥ जनम हेतु सब कह पितु-माता । करम सुभासुभ देइ बिधाता ॥३॥ सूर्यवंश में बहुत से राजा हुए, उनमें एक से एक बढ़कर बड़े हुए हैं । सब के जन्म के कारण माता-पिता हैं और शुभ अशुभ कर्मों के फल देनेवाले विधाता हैं।