पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७५

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रामचरित मानस । राजा जी उठे और रामचन्द्रजी राजा हो गये। नगर के लोगों को लाभ अधिक तथा हानि अल्प जान पड़ी और रानियाँ दुःख सुख बरावर समझ कर रोती हैं ॥३॥ राजा का पुनः जीवित होना असिद्ध अधार है। इस अहेतु को हेतु ठहराना मसिन विषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। कहहिं भरत मुलि कहा सो कीन्हे । फल जग जीवन अभिमत दीन्हे। कानन करउँ जनम भरि बासू । एहि ते अधिक न मेोर सुपासू ॥१॥ भरतजी कहते हैं कि मुनिराज ने जो कहा वह करेंगे, हमें संसार में जीने का वाञ्छित फल दिया। मैं जन्म भर बन में निवास करूँगा, इससे.बढ़ कर मेरे लिये सुपीते की दूसरी पात नहीं है । दो अल्लरजाली राम-सिया, तुम्ह सर्वज्ञ-सुजान । जाँ कुर कहत नाथ निज, कीजिया बचन प्रवान ॥२६॥ रामचन्द्रजी और सीताजी हृदय की बात जाननेवाले और आप सब जागने में प्रवीण हैं। यदि मैं सच कहता हूँ तो हे नाथ ! अपने बचनों के अनुसार कीजिये ॥२५॥ 'अन्तर्यामी और सर्वज्ञ सुजान' संशायें साभिप्राय है, क्योंकि अन्तर्यामी से हदय की झूठ सच बात छिपी नहीं रह सकती और सर्वच सुजान ही सप अन्तःकरण के भेद को जान सकते हैं अर्थात् मैं सत्य कहता हूँ या बनावटी, वह आपसे छिप नहीं सकता 'परिकराङ्कुर चलंकार' है । सभा की प्रति में जो फुर कह पाठ है। टीकाकार ने इसका अर्थ किया कि- जो आप यह सच कह रहे हैं तो अपने वचन के अनुसार कीजिये गाइन वाक्यों से ध्यान निकल रही है कि योगिराज वशिष्ठजी झूट भी बोला करते थे। भक्त शिरोमणि भरतजी गुरु के प्रति ऐसे कर्णकटु शब्द कैले कह सकते हैं। इस अर्थ ले वशिष्ठजी और भरतजी के मर्यादा की बड़ी पाहवेलना की गई है। चौ०-भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भयउ बिदेहू ॥ भरत महा महिमा जलरासी । मुनिमति ठादि तीर अबला सी ॥१॥ भरतजी के वचनों को सुन कर और उनके प्रेम को देख कर सभा के सहित मुनि विदेह होगये अर्थात् शरीर की सुध भूल गई । भरतजी की महान् महिमा समुद्र रूपिणी है और वशिष्ठ मुनि की मति स्त्री के समान उसके किनारे खड़ी है ॥२॥ मुनि मति-उपमेय, अबला-उपमान, सी- वाचक और खड़ी होना-धर्म पूपिमा अलंकार' है। भरतजी के उत्तर से गुरुजी निरुत्तर होगये, बुद्धि चकरा गई कुछ कह नहीं सकते । यही घात नीचे की चौपाई में कहते है। गा चह पार जतन हिय हेरा । पावति नाव न बाहित बेरा ॥ और करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिन्धु समाई ॥२॥ पार जाना चाहती है, उसके लिये हृदय में यत्न हूँढ़ती है; परन्तु जहाज़, नाव या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती है। फिर दूसरा कौन भरतजी की वड़ाई करेगा ? क्या तलैया की मुंतुही में समुद्र समा सकता है ? (कदापि नहीं) ॥२॥