पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७६

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इतोय सोपान, अयोध्याकाण्ड । उत्तर हूहना पार जाने की इच्छा है। उत्तम, मध्यम और लघु तीन प्रकार के उत्तर क्रमशः जहाज़, नाव और बेड़ा है। कहना यह है कि मुनिजी किसी तरह का उत्तर नहीं दे सके, पर से सीधे न कह कर जहाज़ शादि का न पाना कथन 'ललित अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में काकु से विपरीत अर्थ प्रकट होना कि तलैया की सीपी में समुद्र नहीं समा सशता 'वक्रोक्ति अलंकार' है। व्यज्ञार्थ द्वारा दृष्टान्त है कि जैसे सीपी में समुद्र नहीं समा सकता, तैले कोई भरतजी की घड़ाई नहीं कर सकता। सभा की प्रति में 'सर सीपी की सिन्धु समाई' पाठ है, किन्तु राजापुर की प्रति मैं ऐसा नहीं है। भरत मुनिहिँ मन भीतर भाये । सहित समाज राम पहिँ आये ॥ प्रभु प्रनाल करि दोन्ह सुआसन । बैठे सब सुनि सुनि अनुसासन ॥३॥ भरतजी मुनि के मन में सुहावने लगे और समाज के सहित रामचन्द्रजी के पास आये। प्रभु ने प्रणाम करके गुरुजी को सुन्दर श्रासन दिया और मुनि की आज्ञा पा कर सब लोग बैठ गये ॥३॥ बोले मुनिवर बचन विधारी। देस काल अबसर अनुहारी ॥ सुनहु राम, सरबज्ञ सुजाना। घरमा नीति-गुन-ज्ञान निधाना ॥४॥ देश काल और मौके के अनुसार विचार कर मुनिवर वचन योले । हे सर्व सुजान राम- चन्द्र सुनिये, साप धर्म, नीति, गुण और शान के भण्डार हैं ॥४॥ दो०-सब के उरअन्तर असहु, जानहु भाउ कुमाउ । पुरजन-जननी-भरत-हित, होइ सो कहिय उपाउ ॥२५॥ आप सब के में पलते हैं और भले बुरे भावों को जानते हैं । पुरबालो, माताएँ और भरत की महाई का जो उपाय हो वह कहिये ॥२५७॥ चौ०-आरत कहहिँ बिचारि न काऊ । सूझा जुआरिहि आपन दाऊ ।

सुनि मुनि बचन कहत रघुराज । नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ ॥१॥

दुःखी मनुष्य कभी विचार कर बात नहीं कहते, जुझारी को अपना ही दाव सूझता है। मुनि के वचन सुन कर रधुनाथजी कहते हैं कि-हे नाथ ! उपाय तो आप ही के हाथ । सब कर हित रुख राउरि राखे । आयसु किये मुदित फुर भाखे। प्रथम जो आयसु मा कह होई । माथे मानि करउँ सिख सोई ॥२॥ आप का रुख रलने ही में सब की भलाई है, मैं सच कहता हूँ प्रलन हो कर आशा कीजिये । पहले जो मुझ को प्राशा हो, उप शिक्षा को मैं माथे पर चढ़ा कर कां ॥२॥