पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७७

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रामचरित-मानस । पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाँई । सो सब भाँति घटिहि सेवकाई । कह मुनि राम सत्य तुम्ह पाखा । भरत सनेह बिचार न राखा ॥३॥ हे स्वामिन् ! फिर जिसको जैसा कहियेगा वह सब तरह से सेवकाई (आमा पालन) करेगा। मुनिने फहो-हे रामचन्द्र ! आप सत्य कहते हैं. परन्तु भरत के स्नेह ने मेरे विचार को स्वतन्त्र नहीं रहने दिया ॥३॥ तेहि त कहउँ बहोरि बहारी । भरत-भगति-बस मइ मति भारी॥ मारे जान भरत रुचि राखी । जो कीजिय सो सुभ सिव साखी ॥४॥ इससे मैं पार बार कहता हूँ कि भरत की भक्ति के वश होकर मेरी बुद्धि भोली हो गई है। मेरे जान भरत की रुचि रख कर जो कीजियेगा वह अच्छा ही होगा, इसके शिवजी साक्षी हैं। दो०-भरत बिनय सादर सुनिय, करिय बिचार बहारि । करब साधु-मत लोक-मत, नृप-नय निगम निचोरि ॥२५॥ भरत की प्रार्थना आदर के साथ सुनिये, फिर उस पर विचार करिये। राजनीति और वेद के सिद्धान्तानुसार (जो उचित समझ पड़े) ग्रहण वात्साग कीजिये ॥२५॥ साधुमत-त्याग और लोक-मत ब्रहण से तात्पर्य है । दूसरे चरण का यह अथ भी किया जाता है कि-सज्जनों का मत, लोगों की राय, राजनीति और वेद का निचोड़ जो उचित हो यह कीजिये। चौ०-गुरु अनुराग भरत पर देखी । राम-हृदय आनन्द बिसेखी ॥ भरतहि धरम-धुरन्धर जानी। निज-सेवक-तन-मानस आनी ॥१॥ गुरुजी का प्रेम भरत पर देख कर रामचन्द्रजी के हृदय में बड़ा भानन्द हुआ । भरतजी को धर्म-धुरन्धर और तन मन वचन से अपना सेवक जान कर ॥१॥ बोले गुरु आयसु अनुकूला । बचन भजु मृदु मङ्गल-मूला ॥ नाथ सपथ पितु-चरन दोहाई । भयेउ न भुवन भरत सम भाई ॥२॥ गुरुजी की आज्ञा के अनुकूल सुन्दर मधुर मल-मूल वचन बोले । हे नाथ! आप की शिपथ और पिता के चरणों की सौगन्ध करके कहता हूँ कि संसार में भरत के समान भाई नहीं हुनी ॥२॥ जे गुरु-पद-अम्बुज अनुरागी । ते लोकहु बेदहु बड़ भागी॥ राउर जा पर अस अनुरागू । को कहि सका भरत कर भागू ॥३॥ जो गुरु के चरण-कमलों के प्रेमी हैं, वे लोक में भी और वेद में सो बड़े भाग्यवान माने जाते हैं। जिस पर श्राप का ऐसा प्रेम है, फिर भरत भाग्य को कौन कह सकता है। (कोई नहीं)॥३॥