पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६१७ लखि लघु-बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई ॥ मरत कहहि सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई in छोटे भाई भरत को मुंह पर बड़ाई करते हुए देख कर बुद्धि लज्जित होती है। जो भरत कहें वही करने में अच्छा है, ऐसा कह कर रामचन्द्रजी चुप हो गये ॥४॥ दो०-तब मुनि बोले मरत सन, सह सकोच तजि तात। कृपासिन्धु प्रियबन्धु सन, कहहु हृदय के बात ॥२५॥ तब मुनि भरतजी से वोले-हे तात ! सब सकोच त्याग कर कृपा के समुद्र प्यारे बन्धु से हदय की बात कहिये ॥२५॥ यहाँ गुरुजी के कथन में व्यसनामूलक गह ध्वनि है कि जिले सुधारने के लिये तुमने मुझे विवश किया, वह सुधार तुम्हारे ही हाथ आ गया है। रामचन्द्रजी तुम्हारी रुचि के अनुसार कार्य करने को तैयार हैं। जो चाहते हो निर्भय कहो । चौ०-सुनि मुनि बच्चन राम सख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई ॥ लखि अपने सिर सब छरमा । कहिन साह कछुकरहिँ बिचारू॥१॥ मुनि के वचन सुन और रामचन्द्रजी का रुख पा कर गुरु तथा स्वामी का अनुकूता- ताले तृप्त हो गये। सब कुबोझ अपने सिर देख कर कुछ कह नहीं सकते, मन में विचार करते हैं ॥१॥ पुलकि सरीर समा भये ठाढ़े। नीरज-नयन नेह-जल साढ़े ॥ कहब मोर मुनिनाथ निबाहा । एहि ते अधिक कहउँ मैं काहा ॥२॥ पुलकित शरीर से सभा में खड़े हुए, कमल नेत्रों में स्नेह से जला. भर आया। बोले- मेरी कहनूत तो मुनिराज. ही ने पूरी कर दी, इससे अधिक मैं क्या कहूँगा? ॥२॥ मैं जानउँ निज-साथ सुभाऊ । अपराधिहु पर कोह न काऊ । मा पर कृपा सनेह बिसेखी । खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ॥३॥ मैं अपने स्वामी का स्वभाष जानता हूँ कि कभी अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। 'मुझ पर दयो और स्नेह विशेष रखते हैं, मैं ने कभी खेलते में भी नाराजगी नहीं देखी ॥३॥ सिसुपन तँ परिहरेउ न सङ्ग । कबहुँ न कीन्ह मोर मन भङ्ग । मैं प्रभु कृपा-रीति जिय जाही। हारेहू खेल जितावहिं माही ॥४॥ बड़कपन से साथ नहीं छोड़ा और कभी मेरा मन हताश नहीं किया। मैं ने स्वामी के कृपा की रीति मन में देखी है कि हारी हुई खेल मुझे जिताते थे ॥४॥