पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७९

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६१८ . रामचरित मानस । दो०-सहूँ सनेह-सकोच-मस, सनमुख कहे न बयन । दरसन तृपित न आजु लगि, प्रेम पियासे नयन ॥२६॥ मैं ने भी स्नेह और सकोच के वश सामने बात नहीं कही। प्रेम के प्याले नेत्र अाज तक दरशन से तृप्त (अघाये) नहीं हुए ॥२६०॥ क्षो०-विधि न सकेउ सहि मार दुलारा । नीच बीच जननी मिस पारा । यहउ कहतमोहिआजु न सामा। अपनी समुझि साधुसुचिकोमा॥१॥ विधाता मेरे दुलार को नहीं सह सका, उस नीव ने माता के बहाने भेद डाल दिया। यह कहते हुए भी श्रॉज मुझे शोसा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से पवित्र साधु कौन दुमा माता की करनी को वहाने से विधि की करतूत कहना 'कैतनपतति अलंकार' है। मातु मन्द मैं साधु सुचाली । उर अस आनत कोटि कुचाली । फरड कि कोदव बालि सुसाली । सुकता-प्रसव कि सम्बुक काली ॥२॥ माता नीच और मैं सुन्दर चालवाला सज्जन पन, ऐसा मन में लाना करोड़ों कुचाल के घरावर है। क्या कोदव के पेड़ में उत्तम धान की वालि लग सकती है और क्या काली घाँधियों में मोती उत्पन्न हो सकता है ? (पदापि नहीं)॥२॥ माता नीच और मैं सुचाती साधु, इस अनमेल वर्णन में 'प्रथम विषम अलंकार है। उत्तरार्द्ध में काकु से विपरीत अर्थ प्रकट होना कि कोदव में धान की फली और काली घाँधियों में मोती नहीं हो सकते 'वक्रोक्ति अलंकार' है । सभा की प्रति में 'मुकता प्रसप कि सम्वुक ताली पाठ है, किन्तु राजापुर की प्रति में ऐसा नहीं है। सपनेहुँ दोस कलेस न काहू । मार अभाग उदधि अवगाहू ॥ बिनु समुझे निज अघ परिपाकू । जारिउँ जाय जननि कहि काकू ॥३॥ स्वप्न में भी दूसरे के दोष से पलेश नहीं हुआ, यह मेरे अभाग्य रूपो समुद्र की मगा- धता है। अपने पाप के फल को बिना समझे मैं ने व्यर्थ ही माता (केकयी) को टेढ़ी बाते कह हृदय हेरि हारेउ सब ओरा । एकहि. भाँति भलेहि भल मारा । गुरु-गेसाइँ साहिब सिय रामू । लागत माहि नोक परिनामू ॥४॥ हृदय में सब ओर हूँढ़ कर मैं हार गया, (पर अपना फुशल कहीं न देखा) एक ही प्रकार मेरी भलाई भले ही जान पड़ी । गुरु समर्थ वशिष्ठजी और स्वामी सीता रामचन्द्रजी' हैं, बस-यही परिणाम मुझे अच्छा लगता है ॥४॥ दो०-साधुसभा गुरु ग्रंभु निकट, कहउँ सुथल सतिभाउ । प्रेम.प्रपञ्च कि झूठ फुर, जानहिँ मुनि रघुराउ ॥२६१॥ सज्जनों की सभा, गुरु और स्वामी के समीप तथा सुन्दर स्थल (तीर्थ) में सत्य कहता हूँ। प्रेमसे, प्रपञ्चले, झूठहै या सच, उसको मुनि (गुरुजी) और रघुनाथजी जानते हैं ॥२६॥ कर जलाया ॥३॥