पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । '६१९ चौ०-भापति-भरन प्रेमपन राखी । जननी कुमति जगत सब साखी । देखि न जाहिँ विकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर-नए-नारी ॥१॥ वाजा का मरण प्रेम की प्रतिक्षा रखने को हुना, मेरी माता को कुबुद्धि का सारा संसार साक्षी है। माताएँ व्याकुल देखी नहीं जाती हैं और नगर के स्त्री-पुरुष असहनीय जलन से जलते हैं | महीं सकल अनरथ कर मूला । सो सुनि समुझि सहउँ सब सूला ॥ सुनि बन-गवन कीन्ह रघुनाथो । करि मुनि बेष लखन-सिय साया ॥२॥ मैं ही सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ हूँ, वह सुन कर और लमझ कर सब शूलों को सहा। सुना कि रघुनाथजी मुनिका भेष बनाकर लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ धन को गमन किया ॥२॥ धिनु पान हिन्ह पयादेहि पाये । खकर साखि रहेउँ एहि पाये। बहुरि निहारि निषाद सनेहू । कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ॥३॥ विना भूते नङ्ग पाँव पैदल हो गये हैं, इस घाव से मैं जीता रहा हूँ इसके शङ्करजी साक्षी हैं। फिर निषाद का स्नेह देख कर वज ले भी कठोर मेरा हृदय विहर (फर) नहीं गया ॥३॥ अब सब आँखिन्ह देखे आई। जियस जीव जड़ सबइ सहाई ॥ जिन्हहिँनिरखिमगसाँपिलिबीछी । तजहिं विषम बिशतामसतीछो॥४॥ अंब सब आँखों श्राफर देखा, जीटेजीजा जीव ने सभी सहन कराया। जिन्हें देख कर रास्ते की तीणोधवाली साँपिन और बीछी अपने भीषण विष को त्याग देती हैं ॥४॥ दो०- ते रघुनन्दन-लखन-सिय, अनहित लागे जाहि। तासु तनय तजि दुसह दुख, दैउ सहावइ काहि ॥२६२॥ वही रघुनाथजी, लक्ष्मणजी और सीताजी जिसको शत्रु जान पड़े, उसके पुत्र को छोड़ फर कठिन दुःख देव किसको सहावेगा ॥२६॥ चौ०--सुनिअतिषिकलमरतबरबानी । आरति-प्रीति-शिनय-नय साली। सो मगन सब सध्या खभारू । मनहुँ कमल-बन परेउ तुसारू ॥१॥ अत्यन्त व्याकुलता, हीनता, प्रीति, विनती और नीति से भरी भरतजी को श्रेय वाणी को सुन कर सष सभा शोक और खलबली में मग्न हो गई, ऐसा मालूम होता है मानों कमल के वन पर पाला पड़ा हो॥१॥ कहि अनेक विधि कथा पुरानी । भरत प्रबोध. कीन्ह, मुनि-ज्ञानी ।। बोले उचित बचन रघुनन्द । दिनकर-कुल-कैरव-बन-चन्दू ॥२॥ शानीमुनि वशिष्ठजी ने अनेक प्रकार की पुरानी कथाएँ कह कर भरतजी को समझाया सूर्यकुल रूपी कुमुद-वन के चन्द्रमा रघुनाथजी उचित बचन बोले ॥२॥