पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८३

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रामचरित मानस । वान् को प्रकट किये अर्थात् रामभक्तों से हम लोगों का कल्याण ही होता आया है। सिर पीट कर और कान में लग लग कर एक दूसरे से कहते हैं कि -अप देवताओं का कार्य भरतजी के हाथ में है ॥३॥ प्रहलाद की कथा बालकाण्ड में २५ दोहे के आगे दुसरी चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखिये। आन उपाठ न देखिय देवा। मानत राम सुसेवक सेवा ॥ हिय सप्रेम सुमिरहु सम भरतहि । निज गुन सील राम बस करतहि॥ हे देवताओ! दूसरा उपाय नहीं दिखाई देता है, रामचन्द्रजी अच्छे सेवकों की सेवा से (अपनी सेवकाई) मानते हैं । हृदय में सब कोई प्रेम के साथ भरतजी का स्मरण करो जो अपने शुण और शील से रामचन्द्रजी को वश में किये हैं ॥४॥ दो०-सुनि सुरु-मत सुरगुरु कहेउ, अल तुम्हार बड़ भाग । सकल सुमङ्गल भूल जग, लरत चरन अनुराग ॥२६॥ देवताओं को सम्मति को सुन कर वृहस्पतिजी ने कहा, तुम लोगों को बड़ा अच्छा भाग्य है : संसार में सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलों का मूल भरतजी के चरणों का प्रेम है ॥२६॥ चौथ-सीतापति सेवक सेवकाई कामधेनु सय-सरिस सुहाई॥ भरत भगति तुम्हरे मन आई । तजहु सोच बिधि बात बनाई ॥१॥ सीतानाथ के सेवकों की सेवकाई सैकड़ी कामधेनु के समान सुहावनी है । यदि तुम्हारे मन में भरतजी की भक्ति आई तो सोच छोड़ दो विधाता ने बात बना दी ॥१॥ रामभक्तों की सेवा-उपमेय और कामधेनु-उपमान है। उपमान से उपमेय को बढ़ कर कहना अर्थात् सैकड़ों कामधेनु के समान सहावनी हरिभक्तों की सेवकाई है 'व्यतिरेक अलंकार है। देखु देवपति भरत प्रशाऊ । सहज सुभाय बिबस रघुराज ॥ मन थिर करहु देव डर नाहीं। भरतहि जानि राम परिछाहीं ॥२॥ हे देवराज ! भरतजी के प्रभाव को देखो कि सहज स्वभाव से रघुनाथजी उनके वश में हैं। हे देवताओ ! मन स्थिर फरो, (डरो मत) भरतजी को रामचन्द्रजी का प्रतिबिम्ब ही समझो ॥२॥ देवताओं के मन में भरतजी के प्रति भ्रम जो शक हुई, गुरुजी का लत्य उपदेश द्वारा उसको दूर करना 'भ्रान्त्यापद्धति अलंकार' है। सुनि सुरगुरु सुर सम्मत . सोचू । अन्तरजामी प्रभुहि सकाचू ॥ निज सिर भार भरत जिय जाना । करत कोटि बिधि मन अनुमाना ॥३॥ देवता और देवगुरु की सलाह सुन कर अंतर्यामी प्रभु रामचन्द्रजी को सोच और सोच' हुआ। अपने ही सिर बोझ समझ कर भरतजी मनमें करोड़ों तरह के विचार करते हैं ॥३॥