पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८५

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। रामचरित मानस । जग अनमल मल एक गोसाँई । कहिय होइ भल कासु भलाई ॥ देव देवतरु सरिख सुभाऊ । सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ ॥४ संसार शत्र, हो जाय पर एक स्वामी हितू रहे तो कहिये किसकी भलाई से भला होगा ? देव ! आप का स्वभाव कल्पवृक्ष के समान कभी किसी के अनुकूल वा प्रतिकूल नहीं होता | संसार भले ही शत्रु पना रहे, पर यदि आप कृपालु हैं तो भलाई श्राप ही की कृपा में है। यह व्यङ्गार्थ वाच्यार्थ के तुल्य ही है। दो०-जाइ निकट पहिचानि तरु, छाँह समनि सब सोच । भांगत अभिमत पाव जग, राउ रङ मल पाच ॥२६॥ वृक्ष को पहचान कर उस के पास छाँह में जाने से सब सोच का नाश होता है । मांगने ले सारा संसार चाहे राजा हो या दरिद्री, भला हो वा बुरा वाञ्छित-फल पाता है ॥२६७॥ चौ०-लखि सब विधि गुर स्वामि सनेहू। मिटेउ छोम नहि मन सन्देहू । अब कहनाकर कीजिय सोई । जनहित प्रचित छोम न होई ॥१॥ सब तरह गुरुजी का और स्वामी (माप) का स्नेह अपने ऊपर देख कर क्षोम मिट गया, अब मन में सन्देह नहीं है। हे दयानिधान ! अब वही कीजिये कि जिसमें इस दास के कारण स्वामी के चित्र में अखमअस न हो॥१॥ जो सेवक साहिबहि सँकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची । सेवक-हित साहिब सेवकाई । करइ सकल मुख लोम बिहाई ॥२॥ जो लेवक स्वामी को सङ्कोच में डाल कर अपनी भलाई चाहता है, उसकी नीच बुद्धि है। सेवक का कल्याण तो सम्पूर्ण सुख और लोभ छोड़ कर स्वामी की सेवकाई करने रुवारथ नाथ फिरे सबही का। किये रजाइ कोटि बिधि नीका ॥ यह स्वारथ परमाथ-सारू । सकल सुकृत-फल सुगति-सिँगारू ॥३॥ हे नाथ! आप के लौटने में सभी का स्वार्थ है और आशा करने में करोड़ों प्रकार से । यह (आप की आज्ञt) स्वार्थ और परमार्थ का सार है, सम्पूर्ण पुण्यों का फल और सुगति (मोक्ष) का ङ्गार है ॥ ३॥ देव एक बिनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी ॥ तिलक समाज साजि सब आना। करिय सुफल प्रभु जाँ.मन माना ॥४॥ हे देव ! मेरी एक प्रार्थना सुन कर फिर जैसा उचित हो वैसा कीजिये। राजतिलक का सब सामान सज कर ले आया हूँ, हे प्रभो ! मन में भावे तो उसे सफल कीजिये ॥ ४॥ अच्छा