पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८७

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६२६ रामचरित-सानस। दो-प्रभु प्रसन्न मन सकुच्च तजि, जो जेहि आयसु देव । सो सिर धरि धरि करिहि सब, मिटिहि अनट अवरेब ॥२६॥ हे प्रभो ! प्रसन्न मन से सकोच छोड़ कर श्राप जिलको जैसी श्रामा दोजियेगा, वह सब लिर पर घर धर कर करेगा; इससे उपद्रव की उलझन मिट जायगी ॥२६॥ चौ०-लरत बचन सुचि सुनि सुर हरणे । साधु सराहि सुमन सुर बरषे असमञ्जस-बस अवध-निवासी प्रमुदित मन तोपस बन-बासी ॥१॥ भरतजी के पवित्र वचनों को सुन कर देवता प्रसन्न हुए और साधुता की सराहना करके फूल बरसाने लगे। अयोध्या निवासी दुवधा के अधीन हो गये, (न जाने रामचन्द्रजी क्या पाशा देंगे) तपस्वी और वनवासी लोग मन में बहुत प्रसन हुए कि सत्यसङ्कल्प रघुनाथजी वन ही में रहेगे ॥२॥ चुपहि रहे रघुनाथ संकोची । प्रगति देखि सभा मब सोची । जनक-दूत तेहि अवसर आये । मुनि बसिष्ट सुनि निकट बोलाये ॥२॥ रघुनाथजी सङ्कोच से चुप ही रहे,. प्रभु की दशा देख कर सब सभासोच में पड़ गई। उसी समय जनकजी के दूत आये, सुन कर वशिष्ठ मुनि ने पाल में बुलवाया ॥२॥ करि मना तिन्ह. राम निहारे । बेष देखि मये निपट दुखारे ॥ दूतन्ह मुनिभर बूली. बाता । कहहु बिदेह भूप कुसलातो ॥ ३ ॥ प्रणाम करके उन दूओं ने रामचन्द्रजी को देखा, उनका वेश देख कर वे अत्यन्त दुःखी हुए, मुनिवर वशिष्ठी वे दुतों से बात पूछो कि विदेह राजा का कुशल कहो ॥३॥ 'विदेह' शब्द में विवक्षितवाच्य संखक्ष्यक्रम व्या है कि विदेही को किसी पर प्रीति कैसे हो सकती है ? इसीसे इतना बड़ा अनर्थ अयोध्या में हुआ और उन्हों ने खबर सुनि सकुचाइ नाइ महि माथा । बाले चर-बर बूझष शउर सादर साँई । कुसल हेतु सो भयउ गोसाँई ॥४॥ यह सुन कर उन श्रेष्ठ दूतों ने लजा कर धरती पर मस्तक नवाया और हाथ जोड़ कर बोले । हे स्वामिन् ! श्राप का आदर के साथ पूंछना कि विदेह का कुशल कहो, प्रभो! यही कुशलता का कारण हुमा (नहीं तो कुशल कहाँ है ? ) ॥४, प्रश्न के शब्द ही उत्तर हुए हैं अथात् कुशल पूछना कुशल का कारण हुआ 'प्रथम चित्रोत्तर अलंकार' है। दो-नाहित कोसलनाथ के साथ कुल्ल गइ नाथ । मिथिला अवध बिसेष तें, जग सब भयउ अनाथ ॥२७०॥ हे नाथ ! नहीं तो कुशलता कोशलनाथ (दशरथजी) के साथ चली गई। वैसे तो.सर जगत अनाथ हो गया, पर मिथिला और अयोध्या विशेष करके अनाथ दुई ॥२७॥ तक न ली। जोरे हाथा.॥