पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६९०

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६२९ रमा-रमन पद बन्दि बहोरी । बिनवहिँ अलि अञ्जुल जारी । राजा राम जानकी रानी। आनंद-अवधि अवध रजधानी ॥३॥ लक्ष्मीकान्त के चरणों की वन्दना कर के फिर पुरुष हाथ जोड़ कर और स्त्रियाँ आँचर पसार कर धिनती करती है कि राजा रामचन्द्रजी, रानी जानकीजी हो और आनन्द की सीमा अयोध्या राजधानी हो ॥३॥ सुषस बसउ फिरि सहित समाजा। भरतहि राम करहु जुबराजा ॥ एहि सुख-सुधा सौंचि सब काहू । देव देहु जग-जीवन लाहू ॥१॥ समाज के सहित अयोध्या फिर स्वच्छन्दता-पूर्वक बसे । भरतजी कोरामचन्द्रजी युवराज वना । हे देव । इस सुख रूपी अमृत से सब को सींच कर संसार में जीने का लामं दीजिये ॥४॥ दो०-गुरु समाज पाइन्ह सहित, राम राज पुर होड.। अछत राम राजा अवध, सरिय माँग सब कोउ ॥२७३॥ गुरु समाज और भाइयों के लहित अयोध्यापुरी में रामचन्द्रजी का राज्य हो।अयोध्या में रामचन्द्र राजा के विद्यमान रहते हमारी मृत्यु हो, सब कोई यही घर माँगते हैं ॥२७३॥ भौ०-सुनि सनेह-मय पुरजन बानी । निन्दाहिँ जोग विरति मुनिज्ञानी॥ एहि विधि नित्य-फरस करि पुरजन । रामहिँ करहिं प्रनाम पुलकितन॥१॥ पुरजनों की स्नेह भरी वाणी सुन कर शामी मुनि अपने योग और वैराग्य की निन्दा करते हैं। इस तरह पुर के लोग नित्य कर्म करके पुलकित शरीर से रामचन्द्रजी को प्रणाम करते हैं ।।१।। ऊँच नीच मध्यम नर-नारी । लहहिं दरस निज निज अनुहारी ॥ सावधान सबही सनलानहिँ । सकल सराहत कृपानिधानहिँ ॥९॥ उत्तम, मध्यम और नीच श्रेणी के स्त्री-पुरुष अपने अपने अनुसार दर्शन पाते हैं। छपा- निधान रामचन्द्रजी सावधानता से सभी का सम्मान करते हैं और वे सम्पूर्ण प्रभु की सरा- हना करते हैं ॥२ लरिकाइहिँ तँ रघुबर बानी । पालस नीति प्रीति पहिचानी ।। सील-सकोच-सिन्धु रघुराज । सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ॥३॥ लड़कपन ही से रघुनाथजी को बानि है कि नीति का पालन और प्रीति को पहचान करते हैं। रामचन्द्रजी प्रसन-बदन, सुन्दर नेत्र, सरल स्वभाव, शील और सोच के सागर है (फिर ऐसा क्यों न करें)